Wednesday, 25 December 2024

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ---

भगवान श्रीगणेश और जगन्माता को नमन करते हुए कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। ध्यान-साधना का एकमात्र उद्देश्य है -- आत्म-साक्षात्कार यानि Self-Realization। एक बार परमात्मा की अनुभूति हो जाये तो साधक को उनसे परमप्रेम हो जाता है, और वह इधर-उधर अन्यत्र कहीं भी नहीं भागता। इस समय मध्यरात्रि है, और परमात्मा की चेतना में जो भी भाव आ रहे हैं, उन्हें ही यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ।

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"मैं अनंतानांत समस्त सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी सृष्ट और असृष्ट है, वह हूँ, और अपने परम ज्योतिर्मय रूप में सर्वत्र व्याप्त हूँ। सब जीवों में मैं ही उपासना कर रहा हूँ। पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और सब नियम मेरी ही रचना है। मैं अनन्य हूँ। उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों ही मेरे मन की कल्पना हैं। मैं उनसे बहुत परे हूँ।"
(टिप्पणी :-- आंतरिक उत्तरायण और दक्षिणायण -- यह साधनाजन्य अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। अतः इस विषय को यहीं छोड़ रहा हूँ, और कुछ भी नहीं लिख रहा। मुझे मुक्ति या मोक्ष की कामना नहीं है, अतः दक्षिणायण का आंतरिक मार्ग ही पसंद है।)
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भगवान कहते हैं --
"अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥८:२१॥"
अर्थात् -- जो अव्यक्त अक्षर कहा गया है, वही परम गति (लक्ष्य) है। जिसे प्राप्त होकर (साधकगण) पुनः (संसार को) नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है॥
The wise say that the Unmanifest and Indestructible is the highest goal of all; when once That is reached, there is no return. That is My Blessed Home.
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भगवान कहते हैं --
"वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥८:२८॥"
अर्थात् -- योगी पुरुष यह सब (दोनों मार्गों के तत्त्व को) जानकर वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान करने में जो पुण्य फल कहा गया है, उस सबका उल्लंघन कर जाता है और आद्य (सनातन), परम स्थान को प्राप्त होता है॥
The sage who knows this, passes beyond all merit that comes from the study of the scriptures, from sacrifice, from austerities and charity, and reaches the Supreme Primeval Abode."
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भगवान हमें अनात्मा से तादात्म्य हटाकर, मन को आत्मस्वरूप में एकाग्र करना सिखा रहे हैं। संसार में रहते हुए, और सांसारिक कार्य करते हुए भी सदा अक्षरपुरुष ब्रह्म के साथ अनन्य-भाव से तादात्म्य स्थापित कर आत्मज्ञान में स्थिर रहने का प्रयत्न हमें करते रहना चाहिए।
(इसके लिए साधना करनी पड़ती है)
यहाँ भगवान कहते हैं कि हमें हमारे में थोड़ी-बहुत अत्यल्प मात्रा में जो भी योग्यता है, हमें ध्यान-साधना का अभ्यास करना चाहिये। इससे हम सब फलों का उल्लंघन कर सकते हैं। इसके नित्य नियमित अभ्यास से विवेक और वैराग्य दोनों ही जागृत होते हैं। बाकी सब भगवान की कृपा पर निर्भर है। हमारे ऊपर भगवान की कृपा बनी रहे, इसका उपाय निरंतर करना चाहिए।
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मैं भगवान श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ कि उनकी परम कृपा से ही यह सब लिख पाया, अन्यथा मुझमें कोई योग्यता नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२४

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