सब फालतू बातें छोड़कर आइये अब एक लम्बी यात्रा की तैयारी करें .....
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मैं जो लिखने जा रहा हूँ वह पूरी सत्यनिष्ठा और पूर्ण ह्रदय से लिख रहा हूँ जिसका परमात्मा साक्षी हैं| इस समय मैं एक अति दिव्य चेतना में हूँ और भगवान की प्रेरणा मेरे साथ है| हमारी यात्रा बहुत लम्बी है, न तो सांसारिक जन्म उसका आरम्भ है, और न ही सांसारिक मृत्यु उसका अंत| उसकी तैयारी हमें इसी क्षण से करनी चाहिए|
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गीता के अध्याय ८ अक्षरब्रह्मयोग में भगवान कहते हैं .....
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्| तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः||८:६||
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्||८:८||
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्||८:९||
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
इसका भावार्थ निम्न है .....
"हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है, जिस भाव का जीवन में निरन्तर स्मरण किया है|
इसलिए हे अर्जुन! तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा|
हे पृथापुत्र! जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी चेतना (आत्मा) से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है, वह निरन्तर चिन्तन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है|
मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये जो कि सभी को जानने वाला है, पुरातन है, जगत का नियन्ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, सभी का पालनकर्ता है, अकल्पनीय-स्वरूप है, सूर्य के समान प्रकाशमान है और अन्धकार से परे स्थित है|
जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है|"
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यह उपदेश सार है जिसका अर्थ बड़ा स्पष्ट है| अब इसे किस रूप में समझें यह समझने वाले की समस्या है| यही मुक्ति का मार्ग है| ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म का आचरण है| हमारा आचरण ब्रह्ममय हो यही ब्रह्मचर्य है| इसी क्षण से हमें उस आचरण को अपनाना पड़ेगा| मेरे द्वारा जो लिखा जा रहा है वह तो एक संकेत मात्र है जिसका अनुसंधान हमें स्वयं स्वाध्याय द्वारा करना होगा|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः||८:१४||
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन| मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते||८:१६||
इसका भावार्थ निम्न है ....
"शरीर के सभी द्वारों को वश में करके तथा मन को हृदय में स्थित करके, प्राणवायु को सिर में रोक करके योग-धारणा में स्थित हुआ जाता है|
इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है|
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ|
मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी अस्तित्व-रहित क्षणभंगुर संसार में पुनर्जन्म कभी नही होता है, बल्कि वह महात्मा परम-सिद्धि को प्राप्त करके मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है|
हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में निम्न-लोक से ब्रह्म-लोक तक के सभी लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रह्ते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त करके मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है|"
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यह यात्रा कहीं बाहर नहीं हमारे सूक्ष्म देह के मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में है| इसी क्षण हम भगवान को अपने हृदय में बैठाकर पूर्ण प्रेम से उन्हें अपने जीवन का केंद्रबिंदु बनाकर उन्हें अपना पूर्ण प्रेम देंगे तो उनके अनुग्रह से हमें निश्चित रूप से मार्गदर्शन प्राप्त होगा|
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आप सब दिव्य महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवम्बर २०१८
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मैं जो लिखने जा रहा हूँ वह पूरी सत्यनिष्ठा और पूर्ण ह्रदय से लिख रहा हूँ जिसका परमात्मा साक्षी हैं| इस समय मैं एक अति दिव्य चेतना में हूँ और भगवान की प्रेरणा मेरे साथ है| हमारी यात्रा बहुत लम्बी है, न तो सांसारिक जन्म उसका आरम्भ है, और न ही सांसारिक मृत्यु उसका अंत| उसकी तैयारी हमें इसी क्षण से करनी चाहिए|
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गीता के अध्याय ८ अक्षरब्रह्मयोग में भगवान कहते हैं .....
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्| तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः||८:६||
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्||८:८||
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्||८:९||
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
इसका भावार्थ निम्न है .....
"हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है, जिस भाव का जीवन में निरन्तर स्मरण किया है|
इसलिए हे अर्जुन! तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा|
हे पृथापुत्र! जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी चेतना (आत्मा) से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है, वह निरन्तर चिन्तन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है|
मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये जो कि सभी को जानने वाला है, पुरातन है, जगत का नियन्ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, सभी का पालनकर्ता है, अकल्पनीय-स्वरूप है, सूर्य के समान प्रकाशमान है और अन्धकार से परे स्थित है|
जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है|"
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यह उपदेश सार है जिसका अर्थ बड़ा स्पष्ट है| अब इसे किस रूप में समझें यह समझने वाले की समस्या है| यही मुक्ति का मार्ग है| ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म का आचरण है| हमारा आचरण ब्रह्ममय हो यही ब्रह्मचर्य है| इसी क्षण से हमें उस आचरण को अपनाना पड़ेगा| मेरे द्वारा जो लिखा जा रहा है वह तो एक संकेत मात्र है जिसका अनुसंधान हमें स्वयं स्वाध्याय द्वारा करना होगा|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः||८:१४||
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन| मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते||८:१६||
इसका भावार्थ निम्न है ....
"शरीर के सभी द्वारों को वश में करके तथा मन को हृदय में स्थित करके, प्राणवायु को सिर में रोक करके योग-धारणा में स्थित हुआ जाता है|
इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है|
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ|
मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी अस्तित्व-रहित क्षणभंगुर संसार में पुनर्जन्म कभी नही होता है, बल्कि वह महात्मा परम-सिद्धि को प्राप्त करके मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है|
हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में निम्न-लोक से ब्रह्म-लोक तक के सभी लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रह्ते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त करके मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है|"
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यह यात्रा कहीं बाहर नहीं हमारे सूक्ष्म देह के मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में है| इसी क्षण हम भगवान को अपने हृदय में बैठाकर पूर्ण प्रेम से उन्हें अपने जीवन का केंद्रबिंदु बनाकर उन्हें अपना पूर्ण प्रेम देंगे तो उनके अनुग्रह से हमें निश्चित रूप से मार्गदर्शन प्राप्त होगा|
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आप सब दिव्य महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवम्बर २०१८
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