भगवान कहाँ हैं? वे निरंतर मेरे साथ मेरे कूटस्थ चैतन्य में हैं .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||" १५:६||
अर्थात् उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि| जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन (संसार को) नहीं लौटते हैं? वह मेरा परम धाम है||
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अब प्रश्न उठता है कि ऐसा कौन सा स्थान है जो स्वयं ज्योतिर्मय है और जहाँ जाने के बाद कोई बापस नहीं लौटता? भगवान तो अचिन्त्य हैं|
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श्रुति भगवती भी कहती है .....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः| तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ||" (कठोपनिषद् २:२:१५)
अर्थात् ''वहाँ सूर्य प्रकाशमान नहीं हो सकता तथा चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है, समस्त तारागण ज्योतिहीन हो जाते हैं; वहाँ विद्युत् भी नहीं चमकती, न ही कोई पार्थिव अग्नि प्रकाशित होती है| कारण, जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' की ज्योति की प्रतिच्छाया है, 'उस' की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है|''
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निश्चित रूप से गुरुकृपा से मैं यह कह सकता हूँ कि वह स्थान मेरा कूटस्थ है जहाँ ज्योतिर्मय ब्रह्म नित्य प्रज्वलित है, और जहाँ से प्रणव की ध्वनि निरंतर निःसृत हो रही है| गुरु महाराज की परमकृपा से ही मुझे इसका अनुभूतिजन्य बोध हुआ है| गुरु के आदेश से मुझे वहीं स्थित भी होना है| वही मेरा आश्रम है, वही मेरी गंगोत्री है, और वही मेरा तीर्थराज प्रयाग है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||" १५:१६||
अर्थात इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है| इस अव्यय और अक्षर आत्मा को वेदान्त में कूटस्थ कहते हैं| कूट का अर्थ है निहाई, जिसके ऊपर स्वर्ण को रखकर एक स्वर्णकार नवीन आकार प्रदान करता है| इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है, परन्तु निहाई अविकारी ही रहती है| कूटस्थ ब्रह्म नित्य है|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में संभव हो तो ठीक है अन्यथा जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करते रहें| समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है जिसमें स्थिति ही योगमार्ग की उच्चतम उपलब्धी है|
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ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१८
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||" १५:६||
अर्थात् उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि| जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन (संसार को) नहीं लौटते हैं? वह मेरा परम धाम है||
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अब प्रश्न उठता है कि ऐसा कौन सा स्थान है जो स्वयं ज्योतिर्मय है और जहाँ जाने के बाद कोई बापस नहीं लौटता? भगवान तो अचिन्त्य हैं|
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श्रुति भगवती भी कहती है .....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः| तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ||" (कठोपनिषद् २:२:१५)
अर्थात् ''वहाँ सूर्य प्रकाशमान नहीं हो सकता तथा चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है, समस्त तारागण ज्योतिहीन हो जाते हैं; वहाँ विद्युत् भी नहीं चमकती, न ही कोई पार्थिव अग्नि प्रकाशित होती है| कारण, जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' की ज्योति की प्रतिच्छाया है, 'उस' की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है|''
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निश्चित रूप से गुरुकृपा से मैं यह कह सकता हूँ कि वह स्थान मेरा कूटस्थ है जहाँ ज्योतिर्मय ब्रह्म नित्य प्रज्वलित है, और जहाँ से प्रणव की ध्वनि निरंतर निःसृत हो रही है| गुरु महाराज की परमकृपा से ही मुझे इसका अनुभूतिजन्य बोध हुआ है| गुरु के आदेश से मुझे वहीं स्थित भी होना है| वही मेरा आश्रम है, वही मेरी गंगोत्री है, और वही मेरा तीर्थराज प्रयाग है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||" १५:१६||
अर्थात इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है| इस अव्यय और अक्षर आत्मा को वेदान्त में कूटस्थ कहते हैं| कूट का अर्थ है निहाई, जिसके ऊपर स्वर्ण को रखकर एक स्वर्णकार नवीन आकार प्रदान करता है| इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है, परन्तु निहाई अविकारी ही रहती है| कूटस्थ ब्रह्म नित्य है|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में संभव हो तो ठीक है अन्यथा जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करते रहें| समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है जिसमें स्थिति ही योगमार्ग की उच्चतम उपलब्धी है|
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ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१८
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