साक्षात परमात्मा के साथ सत्संग :---
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(१) जितने समय तक हम परमात्मा का ध्यान करते हैं उतने समय तक हम निश्चित रूप से परमात्मा के साथ एक होते हैं| बाकी समय तो हमें दुनियाँ पकड़ लेती है| ध्यान के समय हम दुनियाँ की पकड़, गृह-नक्षत्रों व युग के प्रभाव, व हर तरह के कुसंग से दूर भगवान के साथ ही होते हैं| अतः भगवान के साथ जितना समय बीत जाय उतना ही अच्छा है| साक्षात परमात्मा के साथ हमारा सत्संग हो, इससे अच्छा और क्या हो सकता है? उस कालखंड में परमात्मा की कृपा से न तो कोई युग हमारा कुछ बिगाड़ सकता है और न कोई गृह-नक्षत्र| उस कालखंड में कोई कामना नहीं होती, हम कामना रहित होते हैं, स्वयं परमात्मा हमारे साथ होते हैं|
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि इस से बड़ा कोई अन्य लाभ या कोई अन्य उपलब्धि नहीं है.....
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(१) जितने समय तक हम परमात्मा का ध्यान करते हैं उतने समय तक हम निश्चित रूप से परमात्मा के साथ एक होते हैं| बाकी समय तो हमें दुनियाँ पकड़ लेती है| ध्यान के समय हम दुनियाँ की पकड़, गृह-नक्षत्रों व युग के प्रभाव, व हर तरह के कुसंग से दूर भगवान के साथ ही होते हैं| अतः भगवान के साथ जितना समय बीत जाय उतना ही अच्छा है| साक्षात परमात्मा के साथ हमारा सत्संग हो, इससे अच्छा और क्या हो सकता है? उस कालखंड में परमात्मा की कृपा से न तो कोई युग हमारा कुछ बिगाड़ सकता है और न कोई गृह-नक्षत्र| उस कालखंड में कोई कामना नहीं होती, हम कामना रहित होते हैं, स्वयं परमात्मा हमारे साथ होते हैं|
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि इस से बड़ा कोई अन्य लाभ या कोई अन्य उपलब्धि नहीं है.....
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२|"
आत्मप्राप्तिरूप लाभ को पाकर जो उससे अधिक किसी अन्य लाभ को नहीं मानता, कोई दूसरा लाभ है ऐसा स्मरण भी नहीं करता, उस आत्मतत्त्व में स्थित हुआ योगी शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखों द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता|
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सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाए, सारी सृष्टि नष्ट हो जाए, तो भी कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि हम सृष्टिकर्ता परमात्मा के साथ एक हैं| भगवान को जिस भी रूप में जैसे भी हम मानते हैं, भगवान उसी रूप में हमारे समक्ष होते हैं| स्वयं भगवान का वचन है .....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से भक्त मुझे भजते हैं उनको मैं भी उसी प्रकार भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उन पर अनुग्रह करता हूँ|
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एक ही पुरुषमें मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व ..... ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते| हमें इन से भी परे जाना होगा| परमात्मा के सिवा हमें कुछ भी अन्य नहीं चाहिए| किसी अन्य की स्वप्न में भी कोई कामना न हो| परमात्मा का साथ शाश्वत है| इस जन्म से पूर्व भी वे हमारे साथ एक थे और इस जन्म के बाद भी वे ही हमारे साथ रहेंगे| जो कभी भी हमारा साथ न छोड़े वे ही हमारे शाश्वत मित्र हैं, अतः उनका साथ ही श्रेयस्कर है|
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>>> जो नारकीय जीवन हम इस संसार में जी रहे हैं उस से तो अच्छा है कि भगवान का गहनतम ध्यान करते करते हम इस शरीर महाराज को ही छोड़ दें|<<< पर जब इस शरीर महाराज में परमात्मा ही बिराजमान हो जाएँ तो इस की भी चिंता करने की हमें कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसकी चिंता वे देहस्थ परमात्मा स्वयं ही करेंगे|
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(२) ध्यान हम कभी भी अकेले नहीं करते, पूरी सृष्टि हमारे साथ ध्यान करती है| हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ध्यान करते हैं, हम तो परमात्मा को एक अवसर देते हैं हमारे माध्यम से प्रवाहित होने का| ध्यान तो हम करते हैं, पर इस से कल्याण सारी सृष्टि का होता है अतः इस से बड़ी सेवा और इस से बड़ी उपासना अन्य कुछ नहीं है|
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परमात्मा के साथ सत्संग ही सर्वश्रेष्ठ है| इसके लिए किसी के पीछे पीछे भागने की कोई आवश्यकता नहीं है| हम जहाँ हैं, वहीं परमात्मा हैं, वही तीर्थ है और वही सबसे बड़ा धाम है| हमारा सत्संग निरंतर सदा परमात्मा के साथ ही हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१८
आत्मप्राप्तिरूप लाभ को पाकर जो उससे अधिक किसी अन्य लाभ को नहीं मानता, कोई दूसरा लाभ है ऐसा स्मरण भी नहीं करता, उस आत्मतत्त्व में स्थित हुआ योगी शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखों द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता|
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सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाए, सारी सृष्टि नष्ट हो जाए, तो भी कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि हम सृष्टिकर्ता परमात्मा के साथ एक हैं| भगवान को जिस भी रूप में जैसे भी हम मानते हैं, भगवान उसी रूप में हमारे समक्ष होते हैं| स्वयं भगवान का वचन है .....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से भक्त मुझे भजते हैं उनको मैं भी उसी प्रकार भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उन पर अनुग्रह करता हूँ|
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एक ही पुरुषमें मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व ..... ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते| हमें इन से भी परे जाना होगा| परमात्मा के सिवा हमें कुछ भी अन्य नहीं चाहिए| किसी अन्य की स्वप्न में भी कोई कामना न हो| परमात्मा का साथ शाश्वत है| इस जन्म से पूर्व भी वे हमारे साथ एक थे और इस जन्म के बाद भी वे ही हमारे साथ रहेंगे| जो कभी भी हमारा साथ न छोड़े वे ही हमारे शाश्वत मित्र हैं, अतः उनका साथ ही श्रेयस्कर है|
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>>> जो नारकीय जीवन हम इस संसार में जी रहे हैं उस से तो अच्छा है कि भगवान का गहनतम ध्यान करते करते हम इस शरीर महाराज को ही छोड़ दें|<<< पर जब इस शरीर महाराज में परमात्मा ही बिराजमान हो जाएँ तो इस की भी चिंता करने की हमें कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसकी चिंता वे देहस्थ परमात्मा स्वयं ही करेंगे|
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(२) ध्यान हम कभी भी अकेले नहीं करते, पूरी सृष्टि हमारे साथ ध्यान करती है| हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ध्यान करते हैं, हम तो परमात्मा को एक अवसर देते हैं हमारे माध्यम से प्रवाहित होने का| ध्यान तो हम करते हैं, पर इस से कल्याण सारी सृष्टि का होता है अतः इस से बड़ी सेवा और इस से बड़ी उपासना अन्य कुछ नहीं है|
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परमात्मा के साथ सत्संग ही सर्वश्रेष्ठ है| इसके लिए किसी के पीछे पीछे भागने की कोई आवश्यकता नहीं है| हम जहाँ हैं, वहीं परमात्मा हैं, वही तीर्थ है और वही सबसे बड़ा धाम है| हमारा सत्संग निरंतर सदा परमात्मा के साथ ही हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१८
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