Sunday, 7 May 2017

क्या पराई वस्तु पर चर्चा सार्थक है ? .......

क्या पराई वस्तु पर चर्चा सार्थक है ? .......
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प्रिय शिवस्वरूप निजात्मगण, ॐ नमो नारायण !

मुझे स्वयं को पता नहीं है कि जिस विषय पर मैं चर्चा करना चाहता हूँ उस पर चर्चा करने की मुझमें पात्रता और योग्यता है भी या नहीं| फिर भी मैं अपने विचारों को व्यक्त करने का दुःसाहस कर रहा हूँ| पर इसे वे ही समझ पायेंगे जिनकी रूचि आध्यात्म में है| कोई त्रुटी हो तो क्षमा करें|
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इसका आरम्भ एक कहानी से कर रहा हूँ|
एक जिज्ञासु राजा के दरबार में एक परम ज्ञानी ऋषि पधारे| राजा ने उनसे ईश्वर को पाने का मार्ग जानने की जिज्ञासा व्यक्त की| ऋषि ने एक शर्त रखी और राजा का राज्य एक घंटे के लिए माँग लिया|
राजा ने संकल्प कर के अपना पूरा राज्य एक घंटे के लिए ऋषि को सौंप दिया| सिंहासन पर बैठते ही ऋषि ने राजा को भूमि पर बैठा दिया और आदेश दिया की तुम सिर्फ मेरा ही चिंतन करोगे क्योंकि मैं तुम्हारा स्वामी हूँ, तुम अन्य किसी का भी चिंतन नहीं करोगे|
दस पंद्रह मिनटों के पश्चात् अन्तर्यामी ऋषि ने राजा से कहा कि तुम चोर हो| राजा ने प्रतिवाद किया और नम्रता से पूछा कि मैं चोर कैसे हूँ| ऋषि ने कहा कि अभी भी मैं कुछ समय के लिए और राजा हूँ, तुम्हारी सारी धन-संपदा, वैभव और राज्य इस समय मेरा है| तुम अभी भी उसके बारे में सोच रहे हो जो तुम्हारा नहीं है, अतः तुम चोर हो| फिर मेरा आदेश था कि तुम सिर्फ मेरा ही चिंतन करोगे जिसे तुम नहीं मान रहे हो इसलिए भी तुम चोर हो|
राजाको बात समझ में आ गयी|
जब पचास मिनट पूरे हो गए तो अंतर्यामी ऋषि ने देखा कि राजा का मन अब स्थिर और शांत है| उन्होंने राजा को पूछा कि तुम्हें अब क्या दिखाई दे रहा है? राजा का उत्तर था कि मुझे तो अब आपके सिवा अन्य कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है| सब कुछ आप में है और आप ही सब कुछ हैं|
ऋषि ने राजा को तुरंत बापस अपना राज्य संभालने को कहा और उपदेश दिया की सब कुछ परमात्मा का है अतः उनका ही चिंतन निरंतर करो और उनकी ही आज्ञा मानते हुए अपने राजधर्म का निर्वाह करते रहो|
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जो मैं कहना चाहता था वह मैंने इस कहानी के माध्यम से व्यक्त कर दिया|
जो लोग प्रभु को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें निरंतर प्रभु का ही चिंतन करना होगा, अन्य किसी का भी नहीं| हमारा नियोक्ता भी वह ही है और स्वामी भी वह ही है| अतः हर कार्य सिर्फ उसी की प्रसन्नता के लिए हो, अन्य किसी की प्रसन्नता के लिए नहीं| यदि वह हमारे कार्य से प्रसन्न है तो अन्य किसी की अप्रसन्नता का कोई महत्व नहीं है|

किसी भी मुमुक्षु को पर चर्चा से बचना होगा| परचर्चा संसारी लोगों के लिए है, मुमुक्षुओं के लिए नहीं|
इससे हमारी ऊर्जा और समय की बचत होगी जिसका सदुपयोग परमात्मा के चिंतन और ध्यान साधना में कर सकते हैं| अनावश्यक कार्य करने से आवश्यक कार्य करने का समय नहीं मिल पाता जिससे चित्त अशांत रहता है| यह अशांति का एक सबसे बड़ा कारण है| चित्त शांत होगा तभी प्रेम का उदय होगा और तभी हम अपने प्रेमास्पद को पा सकते हैं| परचर्चा राग-द्वेष को भी उत्पन्न करती है जो सबसे बड़ी बाधा है|

परमात्मा का चिंतन सबसे बड़ी सेवा है क्योंकि आप सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक हैं| परमात्मा के चिंतन से सारे सद्गुण आप में यानि इस सृष्टि में आते हैं|

मैं स्वयं भी परमात्मा से उधार माँगे हुए समय का पूर्ण सदुपयोग करने का अब से निरंतर प्रयास करूंगा| कभी भटक जाऊं तो मुझे मार्ग पर लाने का आप सब का अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है|

आप सब शिवस्वरुप निजात्मगण को सादर नमन ! ॐ नमो नारायण ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर

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