यह यात्रा "जीव" से "शिव" बनने की है ---
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"शिवो भूत्वा शिवं यजेत्" -- स्वयं शिव बनकर शिव की आराधना करो। जिन्होंने वेदान्त को निज जीवन में अनुभूत किया है वे डंके की चोट --"शिवोहं शिवोहं", "अहं ब्रह्मास्मि" और "अयमात्मा ब्रह्म" कह सकते हैं। जिन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों का गहन स्वाध्याय किया है, वे भी अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। तत्व रूप में शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। गीता के भगवान वासुदेव ही वेदान्त के ब्रह्म हैं, वे ही मेरी चेतना में परमशिव हैं।
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मेरे इस जीवन का अब संध्याकाल है, बहुत कम समय बचा है। करने को तो बहुत कुछ बाकी है, लेकन जितनी और जो उपासना होनी चाहिए, उतनी हो नहीं रही है। अतः सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया है। जो करना है वह सब वे ही करेंगे, मेरे वश में कुछ भी संभव नहीं है। स्वयं पर कोई भी भार लेने में असमर्थ हूँ। सारी उपासना, उपास्य और उपासक वे ही हैं। दृष्टि, दृश्य और दर्शन भी वे ही हैं। स्वयं का पता नहीं कि जो सांसें चल रही हैं, वे कब तक चलेंगी। अब तो ये सांसें भी वे ही ले रहे हैं। जन्म-जन्मांतरों के सारे कर्म, उनके फल, सारी बुराइयाँ/अच्छाइयाँ सब कुछ उन्हें बापस सौंप दिया है। स्वयं को भी उन्हें समर्पित कर दिया है। मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है, जो उन की इच्छा है वह ही मेरी इच्छा है।
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मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य है -- "शिवत्व की प्राप्ति"। हम शिव कैसे बनें? शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर है -- कूटस्थ में ओंकार रूप में ज्योतिर्मय सर्वव्यापी शिव का ध्यान। यह किसी कामना की पूर्ती के लिए नहीं, बल्कि कामनाओं के नाश के लिए है। आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण -- उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त करता है। जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है -- "कामना और इच्छा की समाप्ति"
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"शिव" का अर्थ शिवपुराण के अनुसार -- जिन से जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में संव्याप्त है, वे शिव हैं। जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे शिव हैं। अमरकोष के अनुसार 'शिव' शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण होता है। विश्वकोष में भी शिव शब्द का प्रयोग मोक्ष में, वेद में और सुख के प्रयोजन में किया गया है। अतः "शिव" का अर्थ हुआ आनन्द, परम मंगल और परम कल्याण। जिसे सब चाहते हैं और जो सबका कल्याण करने वाला है वही "शिव" है।
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पूर्वजन्मों में जैसे कर्म किए थे उनके अनुसार इस जन्म में मैं एक ऐसे समाज में जन्मा जो घोर तमोगुण से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रहा था। जहाँ मेरा यानि इस शरीर का जन्म हुआ वह झुंझुनूं (राजस्थान) एक तमोगुणी गाँव (अब तो नगर है) है। वहाँ का समाज अब भी तमोगुण-प्रधान है। कुछ लोग अवश्य रजोगुणी हैं, लेकिन सतोगुणी तो कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही मिलेगा। जो स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं, उन लोगों की दृष्टि पराए धन और यौन-वासनाओं की पूर्ति पर ही रहती है। स्वयं को धार्मिक दिखाकर, यानि अच्छे बनने का ढोंग रचकर कैसे दूसरों को ठगा जाए, यही यहाँ के लोगों का चिंतन है।
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मेरा यह पूरा जीवन तो इसी प्रयास में खप गया कि कैसे तमोगुण से मुक्त हुआ जाए।
पता नहीं, भगवान श्रीकृष्ण का यह आदेश जीवन में कब फलीभूत होगा --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् -- "हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है, तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित, और आत्मवान् बनो॥"
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आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में जो इसकी व्याख्या की है उसका सार है कि विवेक बुद्धि से रहित कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक यानि तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी, निष्कामी, तथा निर्द्वन्द्व हो। सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी युग्म हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो, और नित्य सत्त्वस्थ तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेम को न चाहने वाला हो। आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुये के लिये यह उपदेश है।
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शैव आगमों के आचार्य भगवान दुर्वासा ऋषि हैं। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। उन्होंने मुद्गल ऋषि को आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे वंश में कभी कोई भूख से नहीं मरेगा। तपस्यारत मुद्गल ऋषि कई दिनों से भूखे थे। कई दिनों के बाद उन्हें खाने को कुछ आहार मिला। जब वे भोजन करने बैठे तब आचमन करते ही दुर्वासा ऋषि पधारे। उन्होंने वह भोजन दुर्वासा ऋषि को करा दिया। दुर्वासा वह सारा भोजन कर लिए, और जाते जाते मुद्गल ऋषि को तो भूख-प्यास से मुक्त कर गए और यह आशीर्वाद भी दे गए कि तुम्हारे वंश में कभी कोई भूख से नहीं मरेगा। तब से कोई भी मुद्गल गौत्रीय ब्राह्मण कभी भूख से तो नहीं मरा है। मुझे आज से साठ वर्ष पूर्व ही गृह त्याग कर विरक्त हो जाना चाहिए था। जीवन के ये इतने वर्ष व्यर्थ ही गए। लेकिन मेरे प्रारब्ध में जो था, वही हुआ। और जन्म लेने की इच्छा अब नहीं है। भगवान यदि फिर जन्म दे तो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य अपनी पूर्णता में जन्म के समय से ही हो। मैं जीव नहीं, जीवनमुक्त अवस्था में परमशिव को ही व्यक्त करूँ।
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भगवान ने ही यह सब लिखा दिया। उन्हीं को यह जीवन समर्पित है।
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
ॐ नमःशिवाय ॐ नमःशिवाय ॐ नमःशिवाय !! महादेव महादेव महादेव !!
शिवोहं शिवोहं, अहं ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
१४ फरवरी २०२३
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