Thursday, 13 February 2025

द्वैत-भाव से की गयी उपासना, अद्वैत भाव से अधिक आनंददायक है ---

अद्वैत-भाव से की गई साधना से द्वैत-भाव अधिक आनंददायक है, क्योंकि अद्वैत-दर्शन में विरह-रस नहीं है। विरह का भी एक आनंद है। भगवान भी निशाना लेकर बड़े यत्न से खींच-खींच कर साधते हुए अपने प्रेम का बाण चलाते हैं, जो चित्त के आर-पार हो जाता है। उनकी यह सधी हुई मार ही हमारी वेदना है।

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विरह की अग्नि असहनीय है। भगवान से अलग हो चुकी आत्मा को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता है। दिन और रात, धूप और छाँह -- कहीं भी सुख नहीं है। प्राण तो उनके विरह में ही तप कर समाप्त हो जायेंगे। इस पीड़ा को या तो मारने वाला जानता है, या फिर इसे भोगने वाला ही। विरह को ही वियोग अवस्था कहते हैं। भगवान् के विरह में हृदय में इतना ताप होता है कि सम्पूर्ण अग्नि और सूर्य भी वैसी जलन नहीं पैदा कर सकते। वियोग संयोग का पोषक होने के कारण रसस्वरूप है। हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है विरह की साहित्यिक रचनाओं से।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
अर्थात् - मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥
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"क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥१२:५॥"
अर्थात् - परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है॥"
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सभी को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ फरवरी २०२५

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