Wednesday 30 May 2018

(१) शरीर सम्बन्धी "तप" क्या हैं ? :-- (२) ऋजुता यानि आर्जवम् यानि सरलता का महत्त्व :--

(१) शरीर सम्बन्धी "तप" क्या हैं ? :--
(२) ऋजुता यानि आर्जवम् यानि सरलता का महत्त्व :--
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आज गीता का यह श्लोक पढ़ कर बहुत अच्छा लगा| मन प्रसन्न हो गया| भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे जीवन में जटिलताओं की ओर जाने से रोक दिया है| सरल ही बने रहना चाहिए| सरलता ही भगवान को प्रिय है| भगवान शिव भी कितने सरल हैं! इस प्रश्न का भी उत्तर मिल गया कि शरीर सम्बन्धी "तप" किसे कहते हैं|

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ||१७:१४||

भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसकी व्याख्या की है ..... देवाश्च द्विजाश्च गुरवश्च प्राज्ञाश्च देवद्विजगुरुप्राज्ञाः तेषां पूजनं देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्? शौचम्? आर्जवम् ऋजुत्वम्? ब्रह्मचर्यम् अहिंसा च शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं शरीरप्रधानैः सर्वैरेव कार्यकरणैः कर्त्रादिभिः साध्यं शारीरं तपः उच्यते ||

अर्थात् ..... देवता, द्विज, गुरु और ज्ञानी का पूजन; शौच (पवित्रता), आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा ये सब शरीर द्वारा किये जानेवाले तप कहे जाते हैं|

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार शरीर को अत्यधिक कष्ट देना तप है, जो गलत है|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
२९ मई २०१८

2 comments:

  1. एक प्रश्न :--- इंसानियत, मानवता, और मानवतावाद ..... इन शब्दों के क्या अर्थ हैं ?
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    ये शब्द बड़े आकर्षक हैं पर भ्रामक हैं| दया, करुणा और सहायता करने की भावना ही इनका प्रचलित अर्थ है| इन शब्दों को हिंदी भाषा में सबसे पहले मैंने रूसी भाषा के साहित्यकार मैक्सिम गोर्की के कुछ साहित्य के हिंदी अनुवाद में पढ़ा था| मुंशी प्रेमचंद ने भी इन शब्दों का प्रयोग अपने साहित्य में किया है| अंग्रेजी में इनका अर्थ होता है ... the quality of being humane, benevolence, compassion, brotherly love, fellow feeling, humaneness, kindness, kind-heartedness, consideration, understanding, sympathy, tolerance, goodness, good-heartedness, gentleness, leniency, mercy, mercifulness, pity, tenderness, charity, generosity, magnanimity.
    पर ये गुण किसी मनुष्य में हो सकते हैं, इसका विश्वास नहीं होता| क्या सचमुच आज के मनुष्य में उपरोक्त सब गुण हो सकते हैं? मेरे विचार से तो नहीं|

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  2. मेरे श्रद्धा-विश्वास और आस्था अब बाहरी विश्व से लगभग उठ गयी है| वह अब बापस नहीं आ सकते| श्रद्धा और विश्वास अब सिर्फ अन्तस्थ परमात्मा पर ही रह गए हैं, अन्य कहीं भी नहीं| बहिर्मुखता अत्यधिक कष्टदायक रही है| सबसे अधिक प्रेम और आनंद के अनुभव मुझे आत्म-तत्व के ध्यान में ही आते हैं| अब अधिकाँश समय उसी में व्यतीत करूंगा| आजकल ईश्वर की कृपा से अच्छी अच्छी दिव्य आत्माओं से सत्संग भी होते रहते हैं| बाहर के विश्व से धीरे धीरे दूर हो रहा हूँ| ॐ ॐ ॐ !!

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