मेरी कोई समस्या नहीं है। "मैं हूँ" -- यह मेरा होना ही एकमात्र समस्या है। मैं नहीं होता तो सिर्फ परमात्मा ही होते। मैं जब नहीं था तब सिर्फ परमात्मा ही थे।
यह समस्या अति विकट है। हे कर्णधार, इस समस्या का हल तुम्ही हो !!
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"दीनदयाल सुनी जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है।
तेरो कहाये कै जाऊँ कहाँ, अब तेरे ही नाम की फ़ेंट कसी है॥
ए हो मुरारी ! पुकारि कहूँ, मेरी नहीं, अब तेरी हँसी है॥"
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मेरी प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या है -- परमात्मा से पृथकता। अन्य सब समस्याएँ परमात्मा की हैं। परमात्मा का सतत् ध्यान और चिंतन ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। मेरा तुमसे पृथक होना ही मेरी एकमात्र समस्या है।
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अब मेरी कोई इच्छा नहीं रही है। तुम्हें पाने की अभीप्सा (एक अतृप्त प्यास और बहुत भयंकर तड़प) ही बची है। जैसे मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, वैसे ही तुम भी मेरे बिना नहीं रह सकते। जहां भी तुमने मुझे रखा है, वहाँ आना तो तुमको पड़ेगा ही। और कुछ भी सुनने को मैं तैयार नहीं हूँ।
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इसी क्षण से तुम मेरे साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२२
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पुनश्च: -- उर्दू भाषा में गालिब की एक कविता है, जो यहाँ प्रासंगिक है ---
"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !"
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