Saturday 6 July 2019

परमात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है ....

घर, परिवार व समाज का वातावरण यदि नकारात्मक हो तो आध्यात्मिक साधक को उन्हें तुरंत त्याग कर एकांत में ही साधना करनी चाहिए| संसार से कुछ भी अपेक्षा, आसक्ति और स्पृहा अति निराशाजनक व दुःखदायी है| संसार हमें आनन्द का प्रलोभन देकर कष्ट और पीड़ाएँ ही देता है|
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परमात्मा इसी क्षण यहीं हैं और नित्य हैं, उनके प्रति श्रद्धा, विश्वास, परमप्रेम और अभीप्सा हो तो आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं; कहीं अन्धकार नहीं रहता| सर्वप्रथम हम परमात्मा को प्राप्त करें| कूटस्थ में परमात्मा की उपस्थिति गहनतम प्रेम के साथ हो| अन्य कोई भी आसक्ति व स्पृहा न रहे| परमात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है| परमात्मा मिल गए तो सब कुछ मिल गया|
कृपा शंकर
१७ जून २०१९

1 comment:

  1. थोड़ा-बहुत धर्म का पालन भी महाभय से रक्षा करता है| अतः जितना भी हो सके यथासंभव धर्म का पालन करना चाहिए | भगवान कहते हैं .....

    "नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||"

    इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है| इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है||

    आरम्भका नाम अभिक्रम है| इस योग रूप मोक्ष मार्ग में अभिक्रम का यानी प्रारम्भ का नाश नहीं होता| योग विषयक प्रारम्भ का फल अनैकान्तिक (संशययुक्त) नहीं है| इसमें प्रत्यवाय (विपरीत फल) भी नहीं होता है|
    इस धर्मका थोड़ासा भी अनुष्ठान (साधन) जन्म-मरण रूप महान संसार भय से रक्षा करता है|
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    "श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||"

    सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है| स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है||

    स्वधर्म और परधर्म का अर्थ नहुत अच्छी तरह समझाया जा चुका है| राग-द्वेष युक्त मनुष्य तो शास्त्र के अर्थ को भी उलटा मान लेता है, और परधर्म को भी धर्म होनेके नाते अनुष्ठान करने योग्य मान बैठता है| परंतु उसका ऐसा मानना भूल है, अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये गये अर्थात् अंगप्रत्यंगों सहित सम्पादन किये गये परधर्म की अपेक्षा गुणरहित भी अनुष्ठान किया हुआ अपना धर्म कल्याणकर है, अर्थात् अधिक प्रशंसनीय है| परधर्म में स्थित पुरुषके जीवनकी अपेक्षा स्वधर्म में स्थित पुरुषका मरण भी श्रेष्ठ है, क्योंकि दूसरे का धर्म भयदायक है, नर्क आदि रूप भय का देने वाला है|
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    ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !

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