सभी मित्रों से एक प्रश्न .....
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जब अच्छे कर्मों का फल मिलता है तब तो हम कहते हैं कि भगवान की कृपा से ऐसा हुआ| पर जब बुरे कर्मों का फल मिलता है तब हम इसे भगवान की कृपा क्यों नहीं मानते ? तब हम इसे अपना दुर्भाग्य क्यों मानते हैं?
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उपरोक्त प्रश्न का उत्तर मेरी बुद्धि से तो यही हो सकता है कि हमारी बुद्धि और मन दोनों ही परमात्मा को अर्पित नहीं हैं, तभी ऐसा विचार मन में आया| यदि हम अपने मन और बुद्धि दोनों को ही परमात्मा को समर्पित कर दें तब ऐसा प्रश्न ही नहीं उठेगा| भगवान को प्रिय भी वही व्यक्ति है जिसने अपना मन और बुद्धि दोनों ही भगवान को अर्पित कर दिए हैं|
भगवान कहते हैं ....
"सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२.१४||
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इससे पहले भगवान कह चुके हैं ........
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते" ||६.२२||
परमात्मा को प्राप्त करके योगस्थ व्यक्ति परमानंद को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है|
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हम परमात्मा को प्राप्त नहीं हुए इसी लिए दुःखों से विचलित हैं| अन्यथा दुःख और सुख दोनों ही भगवान के प्रसाद हैं| अभ्यास द्वारा हम ऐसी आनंदमय स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं जो सुख और दुःख दोनों से परे है|
भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्" ||८.८||
इसका अति गहन अर्थ जो मुझे समझ में आया है वह है ......
"अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा दिव्य परम पुरुष का हम चिंतन करें"|
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Note: ---
विजातीय प्रतीतियों के व्यवधानसे रहित प्रतीतिकी आवृत्तिका नाम अभ्यास है|
वह अभ्यास ही योग है|
जहाँ अन्य कोई नहीं है, वहाँ मैं अनन्य हूँ|
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"उस अभ्यासरूप योगसे युक्त चित्त द्वारा परमात्मा का आश्रय लेकर, विषयान्तर में न जाकर, गुरु महाराज के उपदेशानुसार कूटस्थ सूर्यमण्डल में जो अनन्य दिव्य परम पुरुष हैं, उन्हीं का अखण्डवृत्ति द्वारा निरंतर ध्यान करते हुए हम उन्हीं को प्राप्त हों| अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है| यही परमात्मा की प्राप्ति है|"
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मुझे तो मेरे गुरु महाराज का यही आदेश और उपदेश है| बाकी सब इसी का विस्तार है| सब विभूतियाँ परमात्मा की हैं, हमारी नहीं| हम परमात्मा को उपलब्ध हों| इधर उधर फालतू की गपशप में समय नष्ट न कर सदा भगवान का स्मरण करें| दुःख और सुख आयेंगे और चले भी जायेंगे, पर हम उन से विचलित न हों| भगवान में आस्था रखें| वे सदा हमारी रक्षा कर रहे हैं|
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जब अच्छे कर्मों का फल मिलता है तब तो हम कहते हैं कि भगवान की कृपा से ऐसा हुआ| पर जब बुरे कर्मों का फल मिलता है तब हम इसे भगवान की कृपा क्यों नहीं मानते ? तब हम इसे अपना दुर्भाग्य क्यों मानते हैं?
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उपरोक्त प्रश्न का उत्तर मेरी बुद्धि से तो यही हो सकता है कि हमारी बुद्धि और मन दोनों ही परमात्मा को अर्पित नहीं हैं, तभी ऐसा विचार मन में आया| यदि हम अपने मन और बुद्धि दोनों को ही परमात्मा को समर्पित कर दें तब ऐसा प्रश्न ही नहीं उठेगा| भगवान को प्रिय भी वही व्यक्ति है जिसने अपना मन और बुद्धि दोनों ही भगवान को अर्पित कर दिए हैं|
भगवान कहते हैं ....
"सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२.१४||
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इससे पहले भगवान कह चुके हैं ........
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते" ||६.२२||
परमात्मा को प्राप्त करके योगस्थ व्यक्ति परमानंद को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है|
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हम परमात्मा को प्राप्त नहीं हुए इसी लिए दुःखों से विचलित हैं| अन्यथा दुःख और सुख दोनों ही भगवान के प्रसाद हैं| अभ्यास द्वारा हम ऐसी आनंदमय स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं जो सुख और दुःख दोनों से परे है|
भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्" ||८.८||
इसका अति गहन अर्थ जो मुझे समझ में आया है वह है ......
"अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा दिव्य परम पुरुष का हम चिंतन करें"|
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Note: ---
विजातीय प्रतीतियों के व्यवधानसे रहित प्रतीतिकी आवृत्तिका नाम अभ्यास है|
वह अभ्यास ही योग है|
जहाँ अन्य कोई नहीं है, वहाँ मैं अनन्य हूँ|
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"उस अभ्यासरूप योगसे युक्त चित्त द्वारा परमात्मा का आश्रय लेकर, विषयान्तर में न जाकर, गुरु महाराज के उपदेशानुसार कूटस्थ सूर्यमण्डल में जो अनन्य दिव्य परम पुरुष हैं, उन्हीं का अखण्डवृत्ति द्वारा निरंतर ध्यान करते हुए हम उन्हीं को प्राप्त हों| अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है| यही परमात्मा की प्राप्ति है|"
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मुझे तो मेरे गुरु महाराज का यही आदेश और उपदेश है| बाकी सब इसी का विस्तार है| सब विभूतियाँ परमात्मा की हैं, हमारी नहीं| हम परमात्मा को उपलब्ध हों| इधर उधर फालतू की गपशप में समय नष्ट न कर सदा भगवान का स्मरण करें| दुःख और सुख आयेंगे और चले भी जायेंगे, पर हम उन से विचलित न हों| भगवान में आस्था रखें| वे सदा हमारी रक्षा कर रहे हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०१८
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०१८
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