भगवान की परम कृपा से पिछले अनेक वर्षों में अनेक संत-महात्माओं का सत्संग, और अनेक आध्यात्मिक साधनाओं के अनुभव लिये हैं। गुरुकृपा से सार रूप में यही कह सकता हूँ कि --
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(१) कहीं पर भी हमें रुकना नहीं चाहिए। जहाँ भी रुकते हैं, वहीं से हमारा पतन आरंभ हो जाता है। अपनी चेतना का निरंतर विस्तार करते रहना चाहिये, अन्यथा विनाश आरंभ होने लगता है।
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(२) हमारे एकमात्र स्थायी साथी स्वयं परमात्मा हैं। अन्य सब साथ छोड़ देते हैं, लेकिन वे कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते। उन्हें पकड़ कर रखना चाहिए। पकड़ में भी वे ही आ सकते हैं, अन्य कोई नहीं। उनमें अपने अस्तित्व का पूर्ण विलय कर दें। यही साधना का उद्देश्य है, और यही सफलता का भी मापदंड है।
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(३) शास्त्रों के अध्ययन मात्र से ही "वेदान्त" आदि दर्शन समझ में नहीं आ सकते। उन्हें समझने के लिए सिद्ध महात्माओं के साथ सत्संग और उनकी कृपा प्राप्त करनी पड़ती है।
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(४) कोई भी आध्यात्मिक साधना हो उसका आरंभ "अकिंचन" भाव से होता है। लेकिन एक दीर्घकाल के गहन अभ्यास के पश्चात शिवकृपा से उसकी परिणिती शनैः शनैः "परमशिव" भाव में हो जाती है। "परमशिव" एक अनुभूति है जो अवर्णनीय और अपरिभाष्य है। उसके आगे अन्य सब अनुभूतियाँ गौण हैं।
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(५) क्रियायोग और ध्यान आदि की सारी साधनाएँ अनंत सर्वव्यापी परमशिव भाव में स्थित होकर ही करनी चाहियें। कहीं पर भी कर्ताभाव न आने पाये। भगवान अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं, हम तो एक निमित्त साक्षी मात्र हैं -- यही भाव बना रहे।
इससे आगे मुझे और कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। अपना सब कुछ मैंने यहाँ उंडेल दिया है।
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सभी को मंगलमय शुभ कामना और नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ गुरु !! गुरु ॐ !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अगस्त २०२४
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