Sunday, 25 August 2024

जब तुम ही सर्वस्व हो, फिर यह विक्षेप और आवरण क्यों है?

 जब तुम ही सर्वस्व हो, फिर यह विक्षेप और आवरण क्यों है?

सब कुछ तो तुम ही हो, समस्त अस्तित्व और उससे परे जो कुछ भी है, वह तुम ही हो। तुम्हारे से पृथक कुछ भी नहीं है। फिर यह अतृप्त प्यास, तड़प और वेदना क्यों है?
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उपरोक्त प्रश्न शाश्वत प्रश्न हैं।
"स्वयं को भोक्ता, संसार को भोग्य और परमात्मा को भोग-प्रदाता के रूप में देखना -- हमारी समस्त पीड़ाओं का कारण है।"
दूसरे शब्दों में परमात्मा से पृथकता ही हमारे सब कष्टों का कारण है।
यह अविद्या है। ब्रह्म का ज्ञान पराविद्या है, और सांसारिक ज्ञान अपराविद्या।
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सांसारिक विद्या से जो प्राप्त होता है वह कभी हमारा होता नहीं है, मृत्यु के साथ साथ वह छिन जाता है। ब्रह्मज्ञान यानि परमात्मा का ज्ञान स्थायी होता है। अतः हमें सिर्फ परमात्मा की ही इच्छा करनी चाहिए। उपनिषदों ने जिस परम पुरुष का प्रतिपादन किया है उस को जानने के पश्चात जानने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है।
॥इति॥

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