यह बात मैंने पहले भी अनेक बार लिखी है कि यदि हम किसी वन में घूमने जाएँ और सामने से अचानक कोई सिंह आ जाये तो हम क्या करेंगे? हम कुछ भी नहीं कर सकेंगे, क्योंकि जो कुछ भी करना है वह तो सिंह ही करेगा। उस से बचकर हम कहीं भाग नहीं सकते।
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ऐसे ही यह संसार है। भगवान जब स्वयं हमारे समक्ष आ गए हैं, तब कहीं अन्य जाने को कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि वे तो सर्वत्र हैं। समर्पण के अतिरिक्त हम कर भी क्या सकते हैं? जो कुछ भी करना है, वह तो भगवान स्वयं ही करेंगे। उनके समक्ष हमारी कुछ भी नहीं चल सकती। उनका दिया हुआ सामान जिसे हम मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार कहते हैं, -- पूरा का पूरा उन्हें बापस समर्पित कर दो। हमारा भला इसी में है। बस इतना ही पर्याप्त है। फिर वे हमारा कल्याण ही कल्याण करेंगे। उन के दिये हुये सामान का आज तक कोई भाड़ा हमने नहीं चुकाया है। उनका मूलधन ही बापस कर दो। इसी से वे संतुष्ट हो जाएँगे।
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उन की प्रेममय सर्वव्यापकता और अनंत विस्तार से भी परे एक परम ज्योतिर्मय लोक है, जहाँ वे स्वयं बिराजमान हैं। जहाँ वे हैं, वहीं "मैं" हूँ -- इसी भाव से उन्हीं का ध्यान होना चाहिए। कोई भी साधना हो, वह अपनी गुरु-परंपरा में ही करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी तरह की भूल-चूक हो जाने पर गुरु-परंपरा ही उस भूल का शोधन कर साधक की रक्षा करती है। एक बात बार-बार लिखूँगा कि भगवान से प्रेम करो, खूब प्रेम करो, और अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर के उन का खूब ध्यान करो। दिन का आरंभ और समापन भगवान के ध्यान से ही करो।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन ! सब का मंगल ही मंगल, शुभ ही शुभ, और कल्याण ही कल्याण हो ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२१
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