Thursday 2 September 2021

स्वयं की श्रद्धा ही फलदायी होती है, अन्य कुछ भी नहीं ---

 

स्वयं की श्रद्धा ही फलदायी होती है, अन्य कुछ भी नहीं ---
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जब तक संपूर्ण श्रद्धा नहीं होती तब तक किसी भी विषय में कोई सफलता नहीं मिलती। "श्रद्धा की पूर्णता" ही सिद्धि है। श्रद्धा होने से ही वृत्ति एकाग्र होती है, और उस एकात्रता से ही मनचाहा फल मिलता है। मनुष्य किसी कामना को लेकर इधर-उधर भटकता है -- मज़ारों पर, देवस्थानों पर और फकीरों या साधुओं के पीछे-पीछे, लेकिन वहाँ से उसे कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन ज्यों ही उसकी श्रद्धा में पूर्णता आती है उसे अपने अभीष्ट की प्राप्ति हो जाती है। अज्ञानतावश वह सोचता है कि उसकी कामना की पूर्ति फलाँ-फलाँ मजार पर जाने से , किसी फकीर से, या साधु-महात्मा या किसी विशेष देवता की कृपा से हुई है, लेकिन यह असत्य है। उसे जो कुछ भी मिला है, वह स्वयं की श्रद्धा की पूर्णता से ही मिला है।
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रामचरितमानस में संत तुलसीदास जी ने श्रद्धा-विश्वास को ही भवानी-शंकर बताया है --
"भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
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गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने श्रद्धा का महत्व बताया है --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
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स्वयं की ही श्रद्धा काम आती है, दूसरे की नहीं। कार्यों की असिद्धि --श्रद्धा/निष्ठा की कमी के कारण होती है। श्रद्धा की पूर्णता होने पर ही भगवान की प्राप्ति होती है, अन्यथा कभी नहीं।
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यहाँ एक रहस्य की बात और बताना चाहता हूँ कि गुरुकृपा भी श्रद्धावान को ही प्राप्त होती है, अश्रद्धावान को तो कभी भी नहीं। चेले के पास यदि श्रद्धा नहीं है तो गुरु चाहकर भी चेले का कल्याण नहीं कर सकता। चेला यदि श्रद्धावान है तो बिना मांगे ही गुरु का आशीर्वाद उसे मिल जाता है, और उसका कल्याण हो जाता है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२१

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