ध्यान साधना .....
हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है, न कि कुछ अन्य। जब हृदय में परमात्मा के प्रति परम-प्रेम (भक्ति) होता है, तब उनका ध्यान करते हैं। ध्यान-साधना भगवान के दो ही रूपों की होती है जो तत्व-रूप में एक ही हैं... शिव और विष्णु। गुरु महाराज के आदेशानुसार ध्यान का आरंभ आज्ञाचक्र से ही होता है। मेरुदंड (कमर) सदा उन्नत (सीधी) रहे, दृष्टि भ्रूमध्य में, और ठुड्डी भूमि के समानान्तर। सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ... हमारे आचरण और विचारों की पवित्रता, अन्यथा परिणाम विपरीत ही होता है। जिनके विचारों में पवित्रता नहीं है, उन्हें अगले जन्मों में फिर अवसर मिलेगा। इस जन्म में ध्यान साधना उन के लिए नहीं है, वे बाह्य पूजा-पाठ ही करें और अपने विचारों में पवित्रता लाएँ। जिनके विचार शुद्ध नहीं हैं और आचरण अपवित्र है, ऐसे लोग यदि ध्यान करते हैं तो उनका संपर्क आसुरी जगत से हो जाता है, आसुरी शक्तियाँ उन पर अधिकार कर लेती हैं, और उन्हें असुर यानि राक्षस बना देती हैं।
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हठयोग में कुछ आसन होते हैं जिन के अभ्यास से कमर सदा सीधी रहती है, उन का अभ्यास दिन में दो बार करना चाहिए। इन से जीवन भर कमर झुकेगी नहीं| इसी तरह हठयोग में कुछ विधियाँ हैं जिनके अभ्यास से साँस दोनों नासिकाओं से बराबर चलती है, उनका भी अभ्यास करना चाहिए। ध्यान तभी सिद्ध होगा जब कमर सीधी रहेगी, और साँस दोनों नासिकाओं से चलेगी, अन्यथा ध्यान लगेगा ही नहीं। युवावस्था से ही अभ्यास किया जाये तो खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है। जिन्हें खेचरी मुद्रा सिद्ध है वे ध्यान की गहराइयों में जा सकते हैं। एक आयु के पश्चात खेचरी सिद्ध नहीं होती। इसका अभ्यास युवावस्था से ही करना होता है। श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय द्वारा बताई हुए तालव्य क्रिया, खेचरी सिद्धि के लिए बहुत उपयोगी है।
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शक्ति... स्वयं को प्राण-तत्व के रूप में व्यक्त करती है, और शिव... आकाश-तत्व के रूप में। इन का बोध गुरु-कृपा से ही होता है। इसके लिए अजपा-जप की साधना करनी होती है| अजपा-जप एक वैदिक विधि है जिसके आज के युग में अनेक नाम है। कहीं न कहीं से आरंभ तो करें। आगे का मार्गदर्शन भगवान स्वयं गुरु-रूप में आकर करते हैं।
आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२०
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