Saturday 12 November 2016

हे जगन्माता, हे माँ, मुझे ही बदलो, मेरे जीवन की परिस्थितियों को नहीं .....

हे जगन्माता, हे माँ, मुझे ही बदलो, मेरे जीवन की परिस्थितियों को नहीं .....
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वर्षों पहिले मेरे मानस में कुछ प्रश्न आते थे, जैसे .....
{1} अच्छा या बुरा, मेरे साथ या किसी के भी साथ जो कुछ भी घटित हो रहा है वह
कर्मों का फल है, पुरुषार्थ का पुरुष्कार है, एक संयोग मात्र है, या ईश्वर की इच्छा है?
{2} यदि जब सब कुछ पूर्वनिर्धारित है तो फिर पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है?
{३) सृष्टि का उद्देश्य क्या है? यदि यह उसकी लीला ही है तो भी कुछ तो उद्देश्य होगा ही|
{४} ह्रदय में सदा एक तड़फ, एक अति प्रबल जिज्ञासा, अज्ञात के प्रति एक परम प्रेम, अभीप्सा और शुन्यता क्यों है?
{5} वह क्या है जिसे पाने से ह्रदय की शुन्यता और अभाव भरेगा?
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इन प्रश्नों का कभी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला और कभी मिलेगा भी नहीं जो ह्रदय को तृप्त कर सके|
ये सब शाश्वत प्रश्न हैं जो सभी के दिमाग में आते हैं पर कोई शाश्वत उत्तर नहीं है| हरेक जिज्ञासु को स्वयं ही इन का उत्तर स्वयं के लिए ही प्राप्त करना होता है| वे उत्तर अन्य किसी के काम के नहीं होते|
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इन सब प्रश्नों पर दिमाग खपाने के बाद इन पर सोचना ही छोड़ दिया| फिर भी ये विचार आते कि जिसने इस सृष्टि को बनाया है वह अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम है, उसे किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है, वह जैसे भी सृष्टि सञ्चालन करे, उसकी मर्जी| वह स्वयं अपनी रचना के लिए जिम्मेदार है, अन्य कोई नहीं| सब की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के द्वारा किये कर्मों की है, दूसरों के द्वारा किये गए कर्मों की नहीं|
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अब जो मुझे समझ में आ रहा है और जिस निष्कर्ष पर मैं पहुंचा हूँ वह यह है ....
(1) उपरोक्त सभी प्रश्नों के उत्तर इस तथ्य पर निर्भर है कि हम "मैं" को कैसे परिभाषित करते हैं|
(2) यदि हम स्वयं को यह देह और व्यक्तित्व समझते हैं तब हम मायाजाल से स्वतंत्र नहीं हैं| तब तक हम अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने को बाध्य हैं|
(3) भगवान को पूर्ण रूप से भक्ति और साधना द्वारा समर्पित होकर ही और भगवान से जुड़कर ही हम मुक्त हो सकते हैं, अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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तभी हम हर परिस्थिति से ऊपर उठ सकते हैं| परिस्थितियों को बदलने से कुछ नहीं होगा| आवश्यकता स्वयं की चेतना को बदलने की है|
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हे जगन्माता, मुझे अपने साथ एक करो, मुझे अपना पूर्ण पुत्र बनाओ, मुझे अपना पूर्ण प्रेम दो| अन्य कुछ पाने की कभी कोई कामना ही ना हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

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