हम परमात्मा की उपासना करें, न कि उनकी अभिव्यक्तियों या प्रतीकों की .....
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(जिस विषय पर लिखने का मैं साहस कर रहा हूँ, उस पर बिना गुरुकृपा के कुछ भी लिखना असंभव है. मुझ अकिंचन पर गुरुकृपा फलीभूत हो.)
यह परमात्मा का प्रेम ही है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हर रूप में व्यक्त हो रहा है| हमारी इस देह के जन्म से पूर्व जो प्रेम हमारे माता-पिता में था, वह परमात्मा का ही प्रेम था| गर्भस्थ शिशु के प्रति माँ का प्रेम भी परमात्मा का ही प्रेम था| जन्म के पश्चात माता-पिता व सभी सम्बंधियों व मित्रों का प्रेम भी परमात्मा का ही प्रेम था जो उनके माध्यम से व्यक्त हुआ और हो रहा है| सारे प्रेम का स्त्रोत परमात्मा ही हैं| परमात्मा स्वयं ही अनिर्वचनीय परमप्रेम और उस से उत्पन्न परम आनंद है|
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हमारे इस जीवन के सूत्रधार भी परमात्मा ही हैं| वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से सांस ले रहे हैं, इन आँखों से देख रहे हैं, इन कानों से सुन रहे हैं, इन पैरों से चल रहे हैं और इन हाथों से काम कर रहे हैं| हमारा सारा अंतःकरण भी उन्हीं के द्वारा संचालित हो रहा है| पर उन्होंने हमें स्वयं से दूर जाने की छूट भी दी है| उन्होंने प्रकृति का निर्माण किया और उसके नियम बनाए| प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, किसी के साथ भेदभाव नहीं करती| कर्मफलों के सिद्धांतानुसार दुःखों व सुखों के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं जो प्रकृति के नियमानुसार है| प्रकृति के नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है| हमारे ज्ञान के स्त्रोत भी वे परमात्मा ही हैं| उनको पाने के मार्ग का नाम है "परम प्रेम"|
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इन पंक्तियों को लिखने का मेरा उद्देश्य यह कहना है कि हम उन्हें अपने ऊर्ध्वस्थ मूल में ढूंढें| इसे मैं अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से यथासंभव समझाने का प्रयास करूंगा| यदि न समझा सका तो आप यही मानिए कि उसकी क्षमता मुझ में नहीं है| पर मुझे मेरे अंतर में कणमात्र भी संशय नहीं है|
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भगवान गीता में कहते हैं.....
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्| छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्||१५:१||
यह श्लोक हमें कठोपनिषद् में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष का स्मरण कराता है| यदि परमात्मा ही एकमात्र सत्य है तो यह परिछिन्न जगत कैसे उत्पन्न हुआ? उत्पन्न होने के पश्चात् कौन इसका धारण और पोषण करता है? सृष्टिकर्ता अनन्त ईश्वर और सृष्ट जगत् के मध्य वस्तुतः क्या संबंध है?
अश्वत्थ शब्द में श्व का अर्थ आगामी कल है, त्थ का अर्थ है स्थित रहने वाला| अतः अश्वत्थ का अर्थ होगा ..... वह जो कल अर्थात् अगले क्षण पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है| अश्वत्थ शब्द से इस सम्पूर्ण अनित्य और परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् की ओर इंगित किया गया है| इस श्लोक में कहा गया है कि इस अश्वत्थ का मूल ऊर्ध्व में अर्थात् ऊपर है|
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आचार्य शंकर के अनुसार संसार को वृक्ष कहने का कारण यह है कि उसको काटा जा सकता है "व्रश्चनात् वृक्ष"| वैराग्य के द्वारा हम अपने उन समस्त दुखों को समाप्त कर सकते हैं जो इस संसार में हमें अनुभव होते हैं| जो संसारवृक्ष परमात्मा से अंकुरित होकर व्यक्त हुआ प्रतीत होता है, उसे हम अपना ध्यान परमात्मा में केन्द्रित कर के काट सकते हैं|
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इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व कहा गया है जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है| वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से ही प्राप्त होता है| इसी प्रकार हमें भी हमारा भरण-पोषण सच्चिदानंद ब्रह्म से ही प्राप्त होता है| हमें हमारे ऊर्ध्वमूल को पाने का ही निरंतर प्रयास करना चाहिए, यही हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है| यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम दूसरों के लिए कर सकते हैं| जो इस जीवन वृक्ष के रहस्य को समझ लेता है वही वेदवित है|
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हमारा ऊर्ध्वमूल कूटस्थ है| ध्यान साधना द्वारा कूटस्थ में ही हमें परमात्मा का अनुसंधान करना होगा| इसकी विधि उपनिषदों में व गीता में दी हुई है,पर कोई समझाने वाला सिद्ध आचार्य चाहिए जो श्रौत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ भी हो| जिस दिन हमारे में पात्रता होगी उस दिन भगवान स्वयं ही आचार्य गुरु के रूप में आ जायेंगे| अतः हर कार्य, हर सोच परमात्मा की कृपा हेतु ही करनी चाहिए|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! श्रीगुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०१९
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(जिस विषय पर लिखने का मैं साहस कर रहा हूँ, उस पर बिना गुरुकृपा के कुछ भी लिखना असंभव है. मुझ अकिंचन पर गुरुकृपा फलीभूत हो.)
यह परमात्मा का प्रेम ही है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हर रूप में व्यक्त हो रहा है| हमारी इस देह के जन्म से पूर्व जो प्रेम हमारे माता-पिता में था, वह परमात्मा का ही प्रेम था| गर्भस्थ शिशु के प्रति माँ का प्रेम भी परमात्मा का ही प्रेम था| जन्म के पश्चात माता-पिता व सभी सम्बंधियों व मित्रों का प्रेम भी परमात्मा का ही प्रेम था जो उनके माध्यम से व्यक्त हुआ और हो रहा है| सारे प्रेम का स्त्रोत परमात्मा ही हैं| परमात्मा स्वयं ही अनिर्वचनीय परमप्रेम और उस से उत्पन्न परम आनंद है|
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हमारे इस जीवन के सूत्रधार भी परमात्मा ही हैं| वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से सांस ले रहे हैं, इन आँखों से देख रहे हैं, इन कानों से सुन रहे हैं, इन पैरों से चल रहे हैं और इन हाथों से काम कर रहे हैं| हमारा सारा अंतःकरण भी उन्हीं के द्वारा संचालित हो रहा है| पर उन्होंने हमें स्वयं से दूर जाने की छूट भी दी है| उन्होंने प्रकृति का निर्माण किया और उसके नियम बनाए| प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, किसी के साथ भेदभाव नहीं करती| कर्मफलों के सिद्धांतानुसार दुःखों व सुखों के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं जो प्रकृति के नियमानुसार है| प्रकृति के नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है| हमारे ज्ञान के स्त्रोत भी वे परमात्मा ही हैं| उनको पाने के मार्ग का नाम है "परम प्रेम"|
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इन पंक्तियों को लिखने का मेरा उद्देश्य यह कहना है कि हम उन्हें अपने ऊर्ध्वस्थ मूल में ढूंढें| इसे मैं अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से यथासंभव समझाने का प्रयास करूंगा| यदि न समझा सका तो आप यही मानिए कि उसकी क्षमता मुझ में नहीं है| पर मुझे मेरे अंतर में कणमात्र भी संशय नहीं है|
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भगवान गीता में कहते हैं.....
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्| छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्||१५:१||
यह श्लोक हमें कठोपनिषद् में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष का स्मरण कराता है| यदि परमात्मा ही एकमात्र सत्य है तो यह परिछिन्न जगत कैसे उत्पन्न हुआ? उत्पन्न होने के पश्चात् कौन इसका धारण और पोषण करता है? सृष्टिकर्ता अनन्त ईश्वर और सृष्ट जगत् के मध्य वस्तुतः क्या संबंध है?
अश्वत्थ शब्द में श्व का अर्थ आगामी कल है, त्थ का अर्थ है स्थित रहने वाला| अतः अश्वत्थ का अर्थ होगा ..... वह जो कल अर्थात् अगले क्षण पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है| अश्वत्थ शब्द से इस सम्पूर्ण अनित्य और परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् की ओर इंगित किया गया है| इस श्लोक में कहा गया है कि इस अश्वत्थ का मूल ऊर्ध्व में अर्थात् ऊपर है|
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आचार्य शंकर के अनुसार संसार को वृक्ष कहने का कारण यह है कि उसको काटा जा सकता है "व्रश्चनात् वृक्ष"| वैराग्य के द्वारा हम अपने उन समस्त दुखों को समाप्त कर सकते हैं जो इस संसार में हमें अनुभव होते हैं| जो संसारवृक्ष परमात्मा से अंकुरित होकर व्यक्त हुआ प्रतीत होता है, उसे हम अपना ध्यान परमात्मा में केन्द्रित कर के काट सकते हैं|
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इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व कहा गया है जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है| वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से ही प्राप्त होता है| इसी प्रकार हमें भी हमारा भरण-पोषण सच्चिदानंद ब्रह्म से ही प्राप्त होता है| हमें हमारे ऊर्ध्वमूल को पाने का ही निरंतर प्रयास करना चाहिए, यही हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है| यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम दूसरों के लिए कर सकते हैं| जो इस जीवन वृक्ष के रहस्य को समझ लेता है वही वेदवित है|
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हमारा ऊर्ध्वमूल कूटस्थ है| ध्यान साधना द्वारा कूटस्थ में ही हमें परमात्मा का अनुसंधान करना होगा| इसकी विधि उपनिषदों में व गीता में दी हुई है,पर कोई समझाने वाला सिद्ध आचार्य चाहिए जो श्रौत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ भी हो| जिस दिन हमारे में पात्रता होगी उस दिन भगवान स्वयं ही आचार्य गुरु के रूप में आ जायेंगे| अतः हर कार्य, हर सोच परमात्मा की कृपा हेतु ही करनी चाहिए|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! श्रीगुरवे नमः ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ फरवरी २०१९
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