Monday 11 March 2019

अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है ......

अंतकाल की भावना ही हमारे अगले देह की प्राप्ति का कारण होती है ......
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इस लेख में भवसागर से मुक्ति का रहस्य छिपा है| जिस का कभी जन्म ही नहीं हुआ उस परमशिव के साथ जुड़कर ही हम मृत्युंजयी हो सकते हैं| फिर कभी जन्म ही नहीं होगा| अन्यथा अंतकाल की भावना ही हमारे अगले शरीर की प्राप्ति का कारण होगी| साधना के कई रहस्य हैं जो भगवान की कृपा से स्वयमेव ही समझ में आते हैं, उन्हें समझाया नहीं जा सकता| भगवान की कृपा होने पर कोई रहस्य रहस्य नहीं रहता| अतः अपने पूर्ण प्रेम से भगवान का निरंतर स्मरण करते हुए हमें अपना मन और बुद्धि भगवान को अर्पित कर देनी चाहिए| पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो या कब बुद्धि और मन काम करना बंद कर दें|
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भगवान का आदेश है ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ||८:७||"
अर्थात तूँ हर समय मेरा स्मरण करते हुए शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर| इस प्रकार मुझ वासुदेव में अपने मन और बुद्धि को अर्पित करने वाला होकर तूँ मुझ को ही अर्थात् मेरे यथा-चिंतित स्वरूप को ही प्राप्त हो जायगा, इसमें संशय नहीं है|
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अंत समय में जैसी भी स्वयं की छवि अपनी कल्पना में हमारे मानस में रहती है वैसी ही देह हमें अगले जन्म में प्राप्त हो जाती है| इसीलिये हमें अपने मन और बुद्धि भगवान को अर्पित कर देने चाहिएँ| हमें भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि अंतकाल में यदि हम आपका स्मरण न कर सकें तो आप ही हमारा स्मरण कर लेना| ईशावास्योपनिषद के अंतिम मन्त्र में यही प्रार्थना की गयी है.....
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌ |
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ||"
अर्थात् वस्तुओं का प्राण, वायु, अमर जीवनतत्त्व है, परन्तु इस का अन्त है भस्म| ॐ हे दिव्य संकल्पशक्ति, स्मरण कर, जो किया था उसे स्मरण कर ! हे दिव्य संकल्पशक्ति, स्मरण कर, किये हुए कर्म का स्मरण कर|
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मुझे तो पूरी श्रद्धा और विश्वास है कि भगवान जैसे हर समय मुझे याद करते हैं वैसे ही इस देह के अंतकाल में भी कर ही लेंगे| यह देह तो उन्हीं की है|
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वैसे भगवान का आदेश यही है कि अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण हो.....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्यमनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् |
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ||८:१५||"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||"
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गीता के उपरोक्त श्लोकों में मुक्ति का रहस्य छिपा है पर इनकी घुट्टी नहीं पिलाई जा सकती| एक मुमुक्षु को इनका स्वाध्याय भी करना होगा और इन्हें अपने आचरण में भी लाना होगा| यदि गीता के उपरोक्त श्लोकों पर आचरण सही होगा तो इस भवसागर से मुक्ति भी निश्चित है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ मार्च २०१९
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पुनश्चः :---
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यही बात भगवान ने और भी कही है ....
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय| निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः||१२:८||
अर्थात् तूँ मुझ विश्वरूप ईश्वर में ही अपने संकल्प विकल्पात्मक मनको स्थिर कर और मुझ में ही निश्चय करने वाली बुद्धि को स्थिर लगा| इसके पश्चात् शरीर का पतन होनेके उपरान्त तूँ निःसन्देह एकात्म भाव से मुझ में ही निवास करेगा| इसमें कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए|
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अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना | परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ||८:८||
अर्थात् ..... हे पृथानन्दन, अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है|
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आचार्य शंकर के अनुसार अनन्यगामी चित्त द्वारा अर्थात् चित्तसमर्पण के आश्रयभूत एक परमात्मा में ही विजातीय प्रतीतियों के व्यवधान से रहित तुल्य प्रतीति की आवृत्ति का नाम अभ्यास है| ऐसे अभ्यासरूप योग से युक्त उस एक ही आलम्बनमें लगा हुआ विषयान्तर में न जानेवाला जो योगी का चित्त है उस चित्त द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय .... दिव्य पुरुष को .... जो आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम पुरुष है ....उसको प्राप्त होता है|
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गजेन्द्रमोक्ष स्तोत्र की प्रथम दो पंक्तियाँ भी यही कहती हैं ....
"एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि |
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ||"

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