भगवान
सब सिद्धांतों, मत-मतान्तरों, परम्पराओं, सम्प्रदायों, मज़हबों और रिलीजनों
से परे है| उन्हें हम किसी मज़हब से बांध नहीं सकते| भगवान साकार भी हैंऔर
निराकार भी| सारे आकार उन्हीं के हैं| महत्व सिर्फ भक्ति यानि परम प्रेम का
है| जिससे भी हमारी भक्ति बढ़े वह सही है, और जिससे हमारी भक्ति घटे वह गलत
है|
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देशकाल (स्थान व समय) के प्रभाव से कोई बच नहीं सकता| आत्म-तत्व को हर कोई समझ नहीं सकता| जिन को इसका आभास मात्र भी है, वे बड़े भाग्यशाली हैं| निज जीवन में वे इसे व्यक्त करने का प्रयास करते रहें| स्वयं परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी इस दिशा में हमारी न तो किसी तरह की सहायता करेगा, और न ही समर्थन करेगा| परमात्मा को समर्पित होकर इस दिशा में निरंतर गतिशील रहें| परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ है .... परमात्मा को समर्पण| इसमें कुछ प्राप्त नहीं होता, क्योंकि प्राप्त होने योग्य कुछ भी नहीं है| हम स्वयं ही समर्पित होकर अपने लक्ष्य के साथ एक हो जाते हैं, वैसे ही जैसे जल की एक बूंद महासागर में समर्पित होकर स्वयं ही महासागर बन जाती है| अंत में हम पायेंगे कि जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं, जिसे हम खोज रहे हैं, वह तो हम स्वयं ही हैं| यही परमात्मा की प्राप्ति है|
कृपा शंकर
२० अक्टूबर २०२०
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