Tuesday, 10 May 2022

स्वयं के अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) पर विजय ही वास्तविक विजय है, अन्य सब भटकाव है ---

 स्वयं के अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) पर विजय ही वास्तविक विजय है, अन्य सब भटकाव है ---

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चित्त जिस भावना में तन्मय होता है, उसी स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। चित्त की वृत्तियाँ जब परमात्मा में लीन होने लगती हैं तब सारे संकल्प तिरोहित होने लगते हैं। परम तत्व में जागृति ही वास्तविक जागृति है। "कामना" और "अभीप्सा" में बहुत अधिक अंतर है। कामना -- बंधन का कारण है, "अभीप्सा" मुक्ति का हेतु है। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की इच्छा ही हमें बंधनों में डालती हैं। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है, मनुष्य उतना ही अन्दर से तुच्छ होता जाता है। और जितना इच्छाओं का त्याग करता है उतना ही वह महान् होता जाता है। हमारे पतन का कारण इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना, छोटी-छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना, तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ जाना है। अन्तःकरण में जितनी अधिक वासनाएँ होंगी, उतना ही वह भीतर से कमजोर होगा। भीतर की कमजोरी ही बाहर की कमजोरी है। चित्त से इच्छाओं की निवृत्ति ही हमें महान बनाती हैं। यह संभव है। गीता में भगवान कहते हैं --
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
अर्थात् -- "श्रीभगवान् कहते हैं -- हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है॥"
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चिंता की कोई बात नहीं है। परमात्मा का निरंतर चिंतन करें। गीता के इन श्लोकों का थोड़ा स्वाध्याय और चिंतन कीजिए। ये चिंतामुक्त होने में सहायक होंगे।
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये| कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है|
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
९ मई २०२२

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