आधुनिक
काल में सम्पूर्ण विश्व की सभी नारियों में से मैं श्री श्री माँ आनंदमयी
को अपना परम आदर्श मानता हूँ | वे वास्तव में इस युग की एक महानतम महिला
थीं | आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर श्री श्री माँ आनंदमयी को कोटि कोटि
नमन !
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श्री श्री माँ आनन्दमयी से एक बार प्रश्न पूछा गया कि मनुष्य को कर्म करने की कितनी स्वतंत्रता है ? माँ का उत्तर था कि हमारे समक्ष एक ही विकल्प है कि हम प्रभु को प्रेम करें या ना करें | अन्य कोई विकल्प नहीं है | प्रभु से प्रेम होगा तो हमारे विचार और संकल्प भी अच्छे होंगे | फिर स्वतः ही हमारे कर्म भी अच्छे होंगे | अहंकारमय विचार होंगे तो स्वतः कर्म भी बुरे होंगे |
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वर्त्तमान युग की महानतम आदर्श महिला आनंदमयी माँ की जीवनी .... (विकिपीडिया से साभार).
श्री श्री आनंदमयी माँ भारत की एक अति प्रसिद्ध संत रही हैं जो अनेक महान सन्तों द्वारा वन्दनीय थीं। माँ का जन्म ३० अप्रेल १८९६ को तत्कालीन भारत के ब्राह्मनबाड़िया जिले के खेऊरा ग्राम में हुआ जो आजकल बांग्लादेश का भाग है| पिता श्री बिपिन बिहारी भट्टाचार्य व माता मोक्षदा सुंदरी उन्हें बचपन में निर्मला नाम से पुकारते थे। निर्मला ने दो वर्ष ग्रामीण विद्यालय में अध्ययन किया| १३ वर्ष की आयु में आपका विवाह तब की परंपरानुसार विक्रमपुर के रमानी मोहन चक्रवर्ती से कर दिया गया। १७ वर्ष की आयु में वे ओष्ठ ग्राम १९१८ में पतिदेव के संग रहने गईं जहाँ से वे बाजितपुर चले गए जहाँ १९२४ तक रहे।
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जब भी उनके पति उन्हें संसार-व्यवहार में ले जाने का प्रयास करते थे तो आनंदमयी माँ उन्हें संयम और सत्संग की महिमा सुनाकर, उनकी थोड़ी सेवा करके, विकारों से उनका मन हटा देती थीं। इस प्रकार कई दिन बीते, हफ्ते बीते, कई महीने बीत गये लेकिन आनंदमयी माँ ने अपने पति को विकारों में गिरने नहीं दिया। आखिरकार कई महीनों के पश्चात् एक दिन उनके पति ने कहाः “तुमने मुझसे शादी की है फिर भी क्यों मुझे इतना दूर दूर रखती हो?”
तब आनंदमयी माँ ने जवाब दियाः “शादी तो जरूर की है लेकिन शादी का वास्तविक मतलब तो इस प्रकार हैः शाद अर्थात् खुशी। वास्तविक खुशी प्राप्त करने के लिए पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक बनें न कि शोषक। काम-विकार में गिरना कोई शादी का फल नहीं है।” इस प्रकार अनेक युक्तियों और अत्यंत विनम्रता से उन्होंने अपने पति को समझा दिया। वे संसार के कीचड़ में न गिरते हुए भी अपने पति की बहुत अच्छी तरह से सेवा करती थीं। पति नौकरी करके घर आते तो गर्म-गर्म भोजन बनाकर खिलातीं।
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वे घर भी ध्यानाभ्यास किया करती थीं। कभी-कभी स्टोव पर दाल चढ़ाकर, छत पर खुले आकाश में चंद्रमा की ओर त्राटक करते-करते ध्यानस्थ हो जातीं। इतनी ध्यानमग्न हो जातीं कि स्टोव पर रखी हुई दाल जलकर कोयला हो जाती। घर के लोग डाँटते तो चुपचाप अपनी भूल स्वीकार कर लेतीं लेकिन अन्दर से तो समझती कि ‘मैं कोई गलत मार्ग पर तो नहीं जा रही हूँ…’ इस प्रकार उनके ध्यान-भजन का क्रम चालू ही रहा। घर में रहते हुए ही उनके पास एकाग्रता का कुछ सामर्थ्य आ गया। एक रात्रि को वे उठीं और अपने पति को भी उठाया। फिर स्वयं महाकाली का चिंतन करके अपने पति को आदेश दियाः “महाकाली की पूजा करो।” उनके पति ने उनका पूजन कर दिया। आनंदमयी माँ में उन्हें महाकाली के दर्शन होने लगे। उन्होंने आनंदमयी माँ को प्रणाम किया।
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तब आनंदमयी माँ बोलीं- अब महाकाली को तो माँ की नजर से ही देखना है न?”
पतिः “यह क्या हो गया।”
आनंदमयी माँ- “तुम्हारा कल्याण हो गया।”
कहते हैं कि उन्होंने अपने पति को दीक्षा दे दी और साधु बनाकर उत्तरकाशी के आश्रम में भेज दिया।
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१९२२ में अक्टूबर मास की शरद पूर्णिमा को चन्द्र से त्राटक करते हुए वे गहन ध्यान में लीन हो गईं व परम सत्य से एकाकार हुईं| उस समय शरीर की आयु २६ वर्ष थी। १९२९ में रमानी के कालीमंदिर परिसर में पहला आश्रम बना| एक बार वे १ वर्ष से अधिक समय के लिए मौन में चली गई| समाधि व मौन बस। पतिदेव उनमें माता का भाव रखते व भोलेनाथ नाम से शिष्य हो गए।
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बाद में वे भारत भर में विचरण करती रहीं| हरि बाबा, उड़िया बाबा, अखंडानंद सरस्वती आदि मित्र सन्त थे| परमहंस योगानंद व स्वामी शिवानंद सब उन्हें आत्म प्रकाश से सुसज्ज अत्यंत विकसित पुष्प कहते थे, पर वे सभी सन्तों को पिताजी कहती थी चाहे वे 25 वर्ष के साधु ही क्यों न हों|
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माँ आनंदमयी को संतों से बड़ा प्रेम था। वे भले प्रधानमंत्री से पूजित होती थीं किंतु स्वयं संतों को पूजकर आनंदित होती थीं। श्री अखण्डानंदजी महाराज सत्संग करते तो वे उनके चरणों में बैठकर सत्संग सुनती। एक बार सत्संग की पूर्णाहूति पर माँ आनंदमयी सिर पर थाल लेकर गयीं। उस थाल में चाँदी का शिवलिंग था। वह थाल अखण्डानंदजी को देते हुए बोलीं ---- “बाबाजी ! आपने कथा सुनायी है, दक्षिणा ले लीजिए, बाबाजी और भी दक्षिणा ले लो।”
अखण्डानंदजीः “माँ ! और क्या दे रही हो?”
माँ- “बाबाजी ! दक्षिणा में मुझे ले लो न !”
अखण्डानंदजी ने हाथ पकड़ लिया एवं कहाः
“ऐसी माँ को कौन छोड़े? दक्षिणा में आ गयी मेरी माँ।” यह स्वामी अखंडानंद जी का एक प्रसंग है यथा उनके अन्य स्थानों पर आश्रम बन गए देश विदेश के विद्वान भक्त उनसे प्रभावित रहे।
देश की स्वतंत्रता के बाद वे और प्रसिद्ध हो गई| १९८२ में कनखल आश्रम हरिद्वार में वे ब्रह्म लीन हो गई|
ॐ ॐ ॐ !!
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श्री श्री माँ आनन्दमयी से एक बार प्रश्न पूछा गया कि मनुष्य को कर्म करने की कितनी स्वतंत्रता है ? माँ का उत्तर था कि हमारे समक्ष एक ही विकल्प है कि हम प्रभु को प्रेम करें या ना करें | अन्य कोई विकल्प नहीं है | प्रभु से प्रेम होगा तो हमारे विचार और संकल्प भी अच्छे होंगे | फिर स्वतः ही हमारे कर्म भी अच्छे होंगे | अहंकारमय विचार होंगे तो स्वतः कर्म भी बुरे होंगे |
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वर्त्तमान युग की महानतम आदर्श महिला आनंदमयी माँ की जीवनी .... (विकिपीडिया से साभार).
श्री श्री आनंदमयी माँ भारत की एक अति प्रसिद्ध संत रही हैं जो अनेक महान सन्तों द्वारा वन्दनीय थीं। माँ का जन्म ३० अप्रेल १८९६ को तत्कालीन भारत के ब्राह्मनबाड़िया जिले के खेऊरा ग्राम में हुआ जो आजकल बांग्लादेश का भाग है| पिता श्री बिपिन बिहारी भट्टाचार्य व माता मोक्षदा सुंदरी उन्हें बचपन में निर्मला नाम से पुकारते थे। निर्मला ने दो वर्ष ग्रामीण विद्यालय में अध्ययन किया| १३ वर्ष की आयु में आपका विवाह तब की परंपरानुसार विक्रमपुर के रमानी मोहन चक्रवर्ती से कर दिया गया। १७ वर्ष की आयु में वे ओष्ठ ग्राम १९१८ में पतिदेव के संग रहने गईं जहाँ से वे बाजितपुर चले गए जहाँ १९२४ तक रहे।
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जब भी उनके पति उन्हें संसार-व्यवहार में ले जाने का प्रयास करते थे तो आनंदमयी माँ उन्हें संयम और सत्संग की महिमा सुनाकर, उनकी थोड़ी सेवा करके, विकारों से उनका मन हटा देती थीं। इस प्रकार कई दिन बीते, हफ्ते बीते, कई महीने बीत गये लेकिन आनंदमयी माँ ने अपने पति को विकारों में गिरने नहीं दिया। आखिरकार कई महीनों के पश्चात् एक दिन उनके पति ने कहाः “तुमने मुझसे शादी की है फिर भी क्यों मुझे इतना दूर दूर रखती हो?”
तब आनंदमयी माँ ने जवाब दियाः “शादी तो जरूर की है लेकिन शादी का वास्तविक मतलब तो इस प्रकार हैः शाद अर्थात् खुशी। वास्तविक खुशी प्राप्त करने के लिए पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक बनें न कि शोषक। काम-विकार में गिरना कोई शादी का फल नहीं है।” इस प्रकार अनेक युक्तियों और अत्यंत विनम्रता से उन्होंने अपने पति को समझा दिया। वे संसार के कीचड़ में न गिरते हुए भी अपने पति की बहुत अच्छी तरह से सेवा करती थीं। पति नौकरी करके घर आते तो गर्म-गर्म भोजन बनाकर खिलातीं।
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वे घर भी ध्यानाभ्यास किया करती थीं। कभी-कभी स्टोव पर दाल चढ़ाकर, छत पर खुले आकाश में चंद्रमा की ओर त्राटक करते-करते ध्यानस्थ हो जातीं। इतनी ध्यानमग्न हो जातीं कि स्टोव पर रखी हुई दाल जलकर कोयला हो जाती। घर के लोग डाँटते तो चुपचाप अपनी भूल स्वीकार कर लेतीं लेकिन अन्दर से तो समझती कि ‘मैं कोई गलत मार्ग पर तो नहीं जा रही हूँ…’ इस प्रकार उनके ध्यान-भजन का क्रम चालू ही रहा। घर में रहते हुए ही उनके पास एकाग्रता का कुछ सामर्थ्य आ गया। एक रात्रि को वे उठीं और अपने पति को भी उठाया। फिर स्वयं महाकाली का चिंतन करके अपने पति को आदेश दियाः “महाकाली की पूजा करो।” उनके पति ने उनका पूजन कर दिया। आनंदमयी माँ में उन्हें महाकाली के दर्शन होने लगे। उन्होंने आनंदमयी माँ को प्रणाम किया।
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तब आनंदमयी माँ बोलीं- अब महाकाली को तो माँ की नजर से ही देखना है न?”
पतिः “यह क्या हो गया।”
आनंदमयी माँ- “तुम्हारा कल्याण हो गया।”
कहते हैं कि उन्होंने अपने पति को दीक्षा दे दी और साधु बनाकर उत्तरकाशी के आश्रम में भेज दिया।
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१९२२ में अक्टूबर मास की शरद पूर्णिमा को चन्द्र से त्राटक करते हुए वे गहन ध्यान में लीन हो गईं व परम सत्य से एकाकार हुईं| उस समय शरीर की आयु २६ वर्ष थी। १९२९ में रमानी के कालीमंदिर परिसर में पहला आश्रम बना| एक बार वे १ वर्ष से अधिक समय के लिए मौन में चली गई| समाधि व मौन बस। पतिदेव उनमें माता का भाव रखते व भोलेनाथ नाम से शिष्य हो गए।
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बाद में वे भारत भर में विचरण करती रहीं| हरि बाबा, उड़िया बाबा, अखंडानंद सरस्वती आदि मित्र सन्त थे| परमहंस योगानंद व स्वामी शिवानंद सब उन्हें आत्म प्रकाश से सुसज्ज अत्यंत विकसित पुष्प कहते थे, पर वे सभी सन्तों को पिताजी कहती थी चाहे वे 25 वर्ष के साधु ही क्यों न हों|
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माँ आनंदमयी को संतों से बड़ा प्रेम था। वे भले प्रधानमंत्री से पूजित होती थीं किंतु स्वयं संतों को पूजकर आनंदित होती थीं। श्री अखण्डानंदजी महाराज सत्संग करते तो वे उनके चरणों में बैठकर सत्संग सुनती। एक बार सत्संग की पूर्णाहूति पर माँ आनंदमयी सिर पर थाल लेकर गयीं। उस थाल में चाँदी का शिवलिंग था। वह थाल अखण्डानंदजी को देते हुए बोलीं ---- “बाबाजी ! आपने कथा सुनायी है, दक्षिणा ले लीजिए, बाबाजी और भी दक्षिणा ले लो।”
अखण्डानंदजीः “माँ ! और क्या दे रही हो?”
माँ- “बाबाजी ! दक्षिणा में मुझे ले लो न !”
अखण्डानंदजी ने हाथ पकड़ लिया एवं कहाः
“ऐसी माँ को कौन छोड़े? दक्षिणा में आ गयी मेरी माँ।” यह स्वामी अखंडानंद जी का एक प्रसंग है यथा उनके अन्य स्थानों पर आश्रम बन गए देश विदेश के विद्वान भक्त उनसे प्रभावित रहे।
देश की स्वतंत्रता के बाद वे और प्रसिद्ध हो गई| १९८२ में कनखल आश्रम हरिद्वार में वे ब्रह्म लीन हो गई|
ॐ ॐ ॐ !!
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