"ॐ गुरु ॐ" ..... ॐ ही गुरु हैं, और गुरु ही ॐ है | ॐकार रूप में परमात्मा
ही गुरु हैं, और वे ही मैं हूँ | मैं यह देह नहीं, उनकी सम्पूर्ण अनंतता और
समष्टि हूँ | ॐकार का कूटस्थ में निरंतर मानसिक जप और ध्यान ही मेरे लिए
गुरु की सर्वोच्च सेवा है |
.
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् | ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ||
ईशावास्योपनिषद् के इस १७ वें मन्त्र में भगवान से उनके अनुग्रह की प्रार्थना की गयी है | उनका अनुग्रह कैसे प्राप्त हो ? .....
ॐ परमात्मा का नाम है .... "तस्य वाचकः प्रणवः" .. ||योगसूत्र.१:२७||
श्रुति भगवती के आदेशानुसार प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए .....
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते | अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || (मुण्डक.२:२:४).
बाण का जैसे एक लक्ष्य होता है वैसे ही हम सबका लक्ष्य परमात्मा होना चाहिए | हमें प्रणव का आश्रय लेकर प्रभु का ध्यान करते हुए स्वयं को उन तक पहुँचाना है |
.
यह पूरी सृष्टि उसी ज्योति का घनीभूत रूप है जो हमें ध्यान में दिखाई देती है | वह ज्योति ही अनाहत नाद के रूप में व्यक्त होती है जो प्रणव यानि ओंकार है | वह ज्योतिषांज्योति हम स्वयं हैं |
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मार्च २०१८
.
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् | ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर" ||
ईशावास्योपनिषद् के इस १७ वें मन्त्र में भगवान से उनके अनुग्रह की प्रार्थना की गयी है | उनका अनुग्रह कैसे प्राप्त हो ? .....
ॐ परमात्मा का नाम है .... "तस्य वाचकः प्रणवः" .. ||योगसूत्र.१:२७||
श्रुति भगवती के आदेशानुसार प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए .....
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते | अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || (मुण्डक.२:२:४).
बाण का जैसे एक लक्ष्य होता है वैसे ही हम सबका लक्ष्य परमात्मा होना चाहिए | हमें प्रणव का आश्रय लेकर प्रभु का ध्यान करते हुए स्वयं को उन तक पहुँचाना है |
.
यह पूरी सृष्टि उसी ज्योति का घनीभूत रूप है जो हमें ध्यान में दिखाई देती है | वह ज्योति ही अनाहत नाद के रूप में व्यक्त होती है जो प्रणव यानि ओंकार है | वह ज्योतिषांज्योति हम स्वयं हैं |
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मार्च २०१८
ओंकार के ध्यान से देह के अभ्यंतर की अधोमुखी क्रियाएँ सुषुम्नापथ द्वारा ऊर्ध्वगामी हो जाती हैं| इसी लिए इसे "ओंकार" कहते हैं| जब प्राण आदि आभ्यान्तरस्थ वायु ओंकार में विलय हो जाती है तब इसे "प्रलय" कहते हैं|
ReplyDeleteयह ओंकार ही जब प्राण आदि को परमात्मा के चरणों में प्रणत करता है तब इसे "प्रणव" कहते हैं|
ओंकार का ध्यान ही चिदाकाश, दहराकाश, महाकाश, पराकाश और सूर्याकाश इत्यादि लोकों से पार करा कर मह:, जन:, तप: और सत्यलोक से भी परे ले जाकर ब्रह्ममय बना देता है| इसका कभी क्षय नहीं होता अतः यह अक्षर या अक्षय है|
यह साक्षात ब्रह्म साधना है जिसकी घोषणा सभी उपनिषद् और भगवद्गीता करती है| इसकी विधि किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से ही सीखें|