सम्पूर्ण अस्तित्व व उससे परे जो कुछ भी है, वे सर्वस्व ही परमात्मा हैं --
.
मुझे सुख, शांति, संतुष्टि और आनंद -- ईश्वर की विराट अनंतता पर ध्यान के द्वारा ही मिलता है, वही मेरा स्वभाव है। मैं संहार-क्रम में कोई साधना नहीं कर सकता। विस्तार-क्रम ही मेरा स्वभाव है। परमात्मा स्वयं को कैसे भी व्यक्त करें, यह उनकी इच्छा, लेकिन वे एक क्षण के लिए भी वे मुझसे पृथक नहीं हो सकते। उनकी यह विराट अनंतता, सम्पूर्ण सृष्टि, और उससे परे का सम्पूर्ण अस्तित्व "मैं" हूँ; यह नश्वर भौतिक देह नहीं। ॐ ॐ ॐ॥
.
परमात्मा मौन नहीं हैं। वे सब शब्दों, ध्वनियों व रूपों से परे हैं। वे अचिंत्य होकर भी चिंत्य हैं। उनका निरंतर चिंतन ही मेरा स्वभाव है। वे मेरे निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं।
हे प्रभु, मुझे अपने से अब और दूर मत करो, मुझे अपने साथ एक, और इस पृथकता के सम्पूर्ण बोध का स्वयं में विलय करो। किसी भी तरह की आकांक्षा का कभी जन्म ही न हो। मैं आपकी विराट अनंतता और परमप्रेम हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ नवंबर २०२५
No comments:
Post a Comment