अद्वैत वेदान्त एक अनुभूति है जो बुद्धि से परे है ---
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बुद्धि से हम अनुमान ही लगा सकते हैं। जब हमारी चेतना मेरुदंडस्थ सभी चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रार में प्रवेश करती है, तभी हमें अद्वैत की अनुभूति हो सकती है। अद्वैत वेदान्त एक अनुभूति है जो बुद्धि से परे है।
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अजपा-जप (जिसे वेदों में हँसवतीऋक कहा गया है) (हँसः योग) का अभ्यास हमें नित्य नियमित करना चाहिए, इसके अभ्यास से आगे के प्रकाशमय द्वार स्वतः ही खुलते जाते हैं। कहीं भी अंधकार नहीं रहता। प्रणव का जप, कुंडलिनी जागरण, आज्ञाचक्र का भेदन, ब्रह्मरंध्र की प्रतीति, सूक्ष्म जगत में प्रवेश, ब्रह्मज्योति के दर्शन, अनंतता की अनुभूति, पंचमुखी महादेव और परमशिव की अनुभूतियाँ -- सब स्वतः ही गुरुकृपा से होने लगते हैं। हम जीवभाव से शिवभाव में स्थित हो जाते हैं। तभी हम "शिवोहं" और "अहं ब्रह्मास्मि" कहने के अधिकारी बनते हैं। यही अद्वैत वेदान्त है। इसे समझने के लिए भगवान की उपासना करनी पड़ती है।
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अद्वैत वेदान्त के आचार्य भगवान आचार्य गौड़पाद हैं, जिन्होंने "माण्डूक्यकारिका" नामक ग्रन्थ की रचना की। इनके शिष्य आचार्य गोविंदपाद थे, जो आचार्य शंकर के गुरु थे। आचार्य शंकर ने अपने परम गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए, सर्वप्रथम भाष्य 'माण्डुक्यकारिका' पर ही लिखा था।
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गौडपादाचार्य का माण्डूक्यकारिका में अद्वैत के साधक के प्रति सन्देश --
"न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥३२॥"
(अवधूतोपनिषद् का ११वां मंत्र भी यही कहता है।
भावार्थ -- किसी का (निरोध) लय नहीं है, किसी की उत्पत्ति नहीं है, कोई आबद्ध (बँधा) हुआ नहीं है, कोई साधक नहीं है, कोई (मुमुक्षु) अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने वाला नहीं है तथा कोई मुक्त भी नहीं है, यही वास्तविक स्थिति है॥
There is no dissolution, no birth, none in bondage, none aspiring for wisdom, no seeker of liberation and none liberated. This is the absolute truth.
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सादर सप्रेम नमन !! ॐ शिव !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ फरवरी २०२३
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