आध्यात्मिक दृष्टि से तप क्या है? ध्यान हम क्यों करते हैं? परमात्मा को क्या चाहिए? ....
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परमात्मा के पास सब कुछ है, उनका कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे निरंतर कर्मशील हैं| एक माइक्रो सेकंड (एक क्षण का दस लाखवाँ भाग) के लिए भी वे निष्क्रिय नहीं हैं| उनका कोई भी काम खुद के लिए नहीं है, अपनी सृष्टि के लिए वे निरंतर कार्य कर रहे हैं| यही हमारा परम आदर्श है| हम भी उनकी तरह निरंतर समष्टि के कल्याण हेतु कार्य करते रहें, तो हम भी परमात्मा के साथ एक हो जायेंगे| समष्टि के कल्याण के लिए हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ ध्यान, ध्यान, और ध्यान| ध्यान हम स्वयं के लिए नहीं अपितु सर्वस्व के कल्याण के लिए करते हैं| परमात्मा को पाने का जो सर्वश्रेष्ठ मार्ग मुझे दिखाई देता है, वह है ... "पूर्ण प्रेम सहित परमात्मा का निरंतर ध्यान"|
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आध्यात्मिक दृष्टि से हमारी कोई भी कामना नहीं होनी चाहिये|
भगवान कहते हैं .....
"न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन| नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि||३:२२|
अर्थात् हे पार्थ तीनों लोकोंमें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मोंमें बर्तता ही हूँ|
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स्वयं के लिए न कर के जो भी काम हम समष्टि यानी परमात्मा के लिए करते हैं, वही तप है, वही सबसे बड़ी तपस्या है, और यह तपस्या ही हमारी सबसे बड़ी निधि है| ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
८ सितम्बर २०१८
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परमात्मा के पास सब कुछ है, उनका कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे निरंतर कर्मशील हैं| एक माइक्रो सेकंड (एक क्षण का दस लाखवाँ भाग) के लिए भी वे निष्क्रिय नहीं हैं| उनका कोई भी काम खुद के लिए नहीं है, अपनी सृष्टि के लिए वे निरंतर कार्य कर रहे हैं| यही हमारा परम आदर्श है| हम भी उनकी तरह निरंतर समष्टि के कल्याण हेतु कार्य करते रहें, तो हम भी परमात्मा के साथ एक हो जायेंगे| समष्टि के कल्याण के लिए हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ ध्यान, ध्यान, और ध्यान| ध्यान हम स्वयं के लिए नहीं अपितु सर्वस्व के कल्याण के लिए करते हैं| परमात्मा को पाने का जो सर्वश्रेष्ठ मार्ग मुझे दिखाई देता है, वह है ... "पूर्ण प्रेम सहित परमात्मा का निरंतर ध्यान"|
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आध्यात्मिक दृष्टि से हमारी कोई भी कामना नहीं होनी चाहिये|
भगवान कहते हैं .....
"न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन| नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि||३:२२|
अर्थात् हे पार्थ तीनों लोकोंमें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मोंमें बर्तता ही हूँ|
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स्वयं के लिए न कर के जो भी काम हम समष्टि यानी परमात्मा के लिए करते हैं, वही तप है, वही सबसे बड़ी तपस्या है, और यह तपस्या ही हमारी सबसे बड़ी निधि है| ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
८ सितम्बर २०१८
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