आत्मनिष्ठ श्रद्धा-विश्वास निश्चित रूप से फलदायी होते हैं .....
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जिसकी जैसी भी श्रद्धा है वह उसी पर अडिग रहे| क्योंकि प्रकृति में जो कुछ भी मिलता है वह निज श्रद्धा से ही मिलता है, कहीं अन्य से नहीं| बिना श्रद्धा-विश्वास के कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता| सबसे अच्छा तो यह है कि श्रद्धा-विश्वास निज आत्मा में हो, कहीं अन्यत्र नहीं| सत्य का अनुसंधान स्वयं में ही करें, वह कहीं बाहर नहीं है| हम भगवान से कुछ मांगते हैं, प्रार्थनाएँ करते हैं, उसके परिणामस्वरूप हमें जो कुछ भी मिलता है वह भगवान की कृपा से, हमारे श्रद्धा-विश्वास से ही मिलता है|
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पर हर सफलता व उपलब्धि के लिए श्रेय तो हमें भगवान को ही देना चाहिए ताकि कोई अहंकार न जन्में| जिस आचरण की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, पहले उस आचरण को हम स्वयं अपने जीवन में उतारें| गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है कि हमें बुद्धिभेद उत्पन्न कर किसी की श्रद्धा को भंग नहीं करना चाहिए व निज आचरण से ही दूसरों को सुधारना चाहिए| भगवान कहते हैं .....
"न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्| जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्||३:२६||
अर्थात ज्ञानी पुरुष कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर उनसे भी वैसा ही कराये||
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रामचरितमानस में श्रद्धा-विश्वास को ही भवानी शंकर बताया गया है.....
''भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ| याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्||” (बालकाण्ड 2).
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इस से अधिक और लिखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो भी इस लेख को पढ़ रहे हैं, वे सब विवेकशील समझदार मनीषी हैं| आप सब को नमन! आप परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१८
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जिसकी जैसी भी श्रद्धा है वह उसी पर अडिग रहे| क्योंकि प्रकृति में जो कुछ भी मिलता है वह निज श्रद्धा से ही मिलता है, कहीं अन्य से नहीं| बिना श्रद्धा-विश्वास के कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता| सबसे अच्छा तो यह है कि श्रद्धा-विश्वास निज आत्मा में हो, कहीं अन्यत्र नहीं| सत्य का अनुसंधान स्वयं में ही करें, वह कहीं बाहर नहीं है| हम भगवान से कुछ मांगते हैं, प्रार्थनाएँ करते हैं, उसके परिणामस्वरूप हमें जो कुछ भी मिलता है वह भगवान की कृपा से, हमारे श्रद्धा-विश्वास से ही मिलता है|
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पर हर सफलता व उपलब्धि के लिए श्रेय तो हमें भगवान को ही देना चाहिए ताकि कोई अहंकार न जन्में| जिस आचरण की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, पहले उस आचरण को हम स्वयं अपने जीवन में उतारें| गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है कि हमें बुद्धिभेद उत्पन्न कर किसी की श्रद्धा को भंग नहीं करना चाहिए व निज आचरण से ही दूसरों को सुधारना चाहिए| भगवान कहते हैं .....
"न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्| जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्||३:२६||
अर्थात ज्ञानी पुरुष कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर उनसे भी वैसा ही कराये||
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रामचरितमानस में श्रद्धा-विश्वास को ही भवानी शंकर बताया गया है.....
''भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ| याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्||” (बालकाण्ड 2).
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इस से अधिक और लिखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो भी इस लेख को पढ़ रहे हैं, वे सब विवेकशील समझदार मनीषी हैं| आप सब को नमन! आप परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१८
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