Sunday, 28 May 2017

जितनी हम सोचते हैं, उससे कहीं अधिक शक्ति हमारे विचारों में है .....



जितनी हम सोचते हैं, उससे कहीं अधिक शक्ति हमारे विचारों में है .....
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जैसा हम सोचते हैं वैसा ही प्रभा-मंडल हमारे चारों और बन जाता है और वह प्रभा-मंडल वैसी ही परिस्थितियों को हमारी और आकर्षित करता रहता है| सफलता के विचार सफलता लाते हैं, असफलता के विचार असफलता लाते हैं, और जो हम सोचते हैं वही हम बन जाते हैं| हम यदि सोचते हैं कि हमारा कार्य कठिन है तो वह वास्तव में कठिन हो जाएगा, यदि हम उसे आसान सोचेंगे तो वह सचमुच आसान हो जाएगा| हम अपनी मंजिल को दूर मानेंगे तो मंजिल दूर चली जायेगी, मंजिल को पास मानेंगे तो मंजिल पास ही आ जायेगी|
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ये ही नियम आध्यात्म में लागू होते हैं| यदि हम सोचते हैं कि भगवान मेरे से दूर है तो भगवान वास्तव में दूर हैं, और यदि हम सोचते हैं कि भगवान हमारे ह्रदय में है तो वास्तव में वे हमारे ह्रदय में ही होते हैं|
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सारी आध्यात्मिक साधनाओं का यही रहस्य है| अब और क्या लिखूं ? सार की बात लिख दी है| जो समझने वाले हैं वे समझ जायेंगे और जो नहीं समझ सकते वे कभी नहीं समझेंगे| हम भजन, जप, तप, ध्यान आदि करते हैं, निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं, उसका प्रयोजन यही है|
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सफलता का रहस्य प्रयास की गहनता और निरंतरता में है| हम भगवान का ध्यान जितना अधिक करेंगे उतनी ही अधिक और भी हमारी इच्छा ध्यान करने की होगी| जितना कम ध्यान करेंगे उतनी ही परमात्मा को पाने की प्यास कम होती चली जाती है|
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आत्मा की प्यास और तड़प यानि अभीप्सा तो परमात्मा के प्रति ही होती है| आत्मा को संतुष्टि परमात्मा से ही मिलती है| मन इन्द्रीय सुखों की पूर्ती हेतु संसार में भटकाता है पर संसार में किसी को कहीं भी संतुष्टि नहीं मिलती है क्योंकि जो आत्म-तत्व है वह तो परमात्मा को ही पाना चाहता है| हम इस बात को समझें या न समझें यह दूसरी बात है, पर यह सत्य है कि हमारा आत्म-तत्व परमात्मा को ही पाना चाहता है, उसकी अभीप्सा परमात्मा के ही प्रति है, वह अन्य कहीं संतुष्ट नहीं हो सकता| इन्द्रिय सुखों के प्रति प्रबल आकर्षण विखंडित व्यक्तित्व को जन्म देता है| यही हमारे असंतोष का कारण है|
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जो हम बनना चाहते हैं वह तो हम पहले से ही हैं| जिसे हम ढूँढ रहे हैं, वह भी हम स्वयं ही हैं| सुख, शान्ति, संतुष्टि, आनंद और पूर्णता हम स्वयं ही हैं| परमात्मा का ह्रदय ही हमारा स्वाभाविक घर है जहाँ हमें पहुँचना है| पर हम तो वहाँ पहले से ही हैं| जो हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह हम स्वयं हैं| पूर्ण प्रेम से निरंतर इसी भाव में प्रयासपूर्वक रहो| एक दिन हम स्वयं को अपने गंतव्य पर ही पायेंगे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
२७ मई २०१७

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