स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के अनुसार ..... " "
तप " → देवता , व्राह्मण , गुरु आदि को प्रणाम व सेवा इत्यादि के द्वारा
प्रसन्न करना , निषिद्ध मैथुन से अगल रहना , सत्य , प्रिय , हितकारी वाणी
बोलना , विपरीत परिस्थिति में भी मन को शांत रखना , चेहरे पर हमेशा
प्रसन्नता रखना इत्यादि तप कहा जाता है । इनको
करने में जो एक अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होता है , उसको लेकर के इसे तप नाम
से कहा गया है । इसके अतिरिक्त चान्द्रायण आदि व्रत , पंचाग्नि तापना ,
सर्दी में शीत जल से स्नान करना तप नहीं कहा जाता । " सूतसंहिता " इत्यादि
के अनुसार " कोऽहं ? केन संसार प्रतिपन्नवान् ? इत्यालोचनमर्थज्ञा तपः
शंसति पण्डिताः" { 2 - 14 - 15 } " मैं कौन हूँ? स्वतन्त्र कैसे होऊँगा और
वन्दन का कारण क्या है ? इसके विचार को ही " तप " कहा गया है । "
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अपने उपास्य के साथ एकाकार होने का एकाग्र चित्त होकर अविचल प्रयास ही एक उपासक का स्वधर्म है, और अपने स्वधर्म में अटल रहना ही तप है| यह मेरा मानना है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ अप्रेल २०१८
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अपने उपास्य के साथ एकाकार होने का एकाग्र चित्त होकर अविचल प्रयास ही एक उपासक का स्वधर्म है, और अपने स्वधर्म में अटल रहना ही तप है| यह मेरा मानना है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ अप्रेल २०१८
तुम मेरे ह्रदय में ही रहोगे !!! ह्रदय का द्वार पूरा खुला है और सदा खुला ही रहेगा, पर तुम अब बाहर नहीं जाओगे ! जा भी कैसे सकते हो ? ह्रदय की चेतना तो सारे विस्तृत है | ह्रदय से बाहर कुछ है ही नहीं |
ReplyDeleteतुम स्वयं मेरा ह्रदय बन गए हो | तुम्हारी तरह मैं भी मुक्त हूँ | तुम्हारी अनंतता मेरी भी अनंतता है, और तुम्हारा विस्तार मेरा ही विस्तार है |
तुम और मैं एक हैं और सदा एक ही रहेंगे | ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
वर्तमान प्रतिकूल वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए हमारे भौतिक प्रयास ही पर्याप्त नहीं हैं, सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयासों की भी आवश्यकता है| हमारे चारो और वातावरण में जो आसुरी तत्व भरा हुआ है उस से मुक्त होने के लिए नित्य नियमित ध्यान साधना तो हमें करनी ही होगी|
ReplyDeleteध्यान साधना भी एक यज्ञ है जिसमें हम अपने स्वयं की यानि अपने अहं की आहुति परमात्मा को देते हैं|