Sunday 29 April 2018

भगवान खाद्य पदार्थ की तरह एक रस है .....


भगवान खाद्य पदार्थ की तरह एक रस है, उसी को खाओ, उसी को पीओ, उसी से मस्ती से रहो, और उसी में मतवाले हो जाओ| देह छोड़ने का समय आये उससे पूर्व ही उस रस को पीकर तृप्त हो जाओ .....
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आज के युग में भगवान की चर्चा मत करो अन्यथा लोग आपको पागल समझेंगे, पर जीओ उसी को| यह भगवान की चर्चा करने का युग नहीं है, उसको जीने का युग है| मैं आप सब के समक्ष भगवान की चर्चा कर रहा हूँ तो यह मेरा पागलपन और मुर्खता है| चर्चा करने की बजाय तेलधारा की तरह उसका ध्यान करो| एक बर्तन से दुसरे बर्तन में तेल डालते हैं तो धारा कभी खंडित नहीं होती वैसे ही परमात्मा का अखंड ध्यान करो|
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भगवान एक रस है, यह वेद वाक्य है ..... "रसो वै सः| रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति| - तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२||
भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर कहते हैं ....
सः एषः आत्मा रसः, अयं जीवः आत्मानन्दरसं लब्ध्वा एव हि आनन्दी भवति । प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरोऽपि आत्मा ‘नास्ति’ इति न मन्तव्यम् । इन्द्रियाणामपि प्रत्यगात्मभूतम् एतं परमात्मानम् इन्द्रियैः द्र्ष्टुं नैव शक्यते । तर्हि सः परमात्मा ‘अस्ति’ इत्यत्र प्रमाणं किम् ? अस्माकम् अनुभव एव प्रमाणम् । तत् कथम् ? इति चेत् ॥
आत्मा रसस्वरूपः । रसो नाम आनन्दः । आनन्दस्वरूप एव आत्मा । अयम् आनन्दस्वरूपः आत्मैव सर्वस्यापि जीवस्य आनंदित्वे कारणम् । सर्वः प्राणी सर्वथा जीवितुम् इच्छति खलु ? किं कारणम् ? रसस्वरूपस्य ब्रह्मणः एतेषां प्रत्यगात्मत्वात् ॥
'तपस्विनः बाह्यसुखसाधनरहिता अपि अनीहाः निरेषणाः ब्राह्मणाः बाह्यरसलाभादिव सानन्दा दृश्यन्ते विद्वांसः'
इति शाङ्करं भाष्यम् । कथं ते तपस्विनः सानन्दाः सदा ? आनन्दरसस्वरूपस्य ब्रह्मणः तेषां स्वरूपत्वात् ॥
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भगवान की चर्चा करने की बजाय उसको प्रेम करें| आपके सामने यदि मिठाई रखी हो तो बुद्धिमानी उसकी विवेचना करने में है या उसको खाने में? बुद्धिमान उसे खा कर प्रसन्न होगा और विवेचक उसकी विवेचना ही करता रह जाएगा कि इसमें कितनी चीनी है, कितना दूध है, कितना मेवा है, किस विधि से बनाया और इसके क्या हानि लाभ हैं .... आदि आदि| वैसे ही भगवान भी एक रस है| उसे चखो, उसका स्वाद लो, और उसके रस में डूब जाओ| इसी में सार्थकता और आनंद है| उसकी विवेचना मात्र से शायद ही कोई लाभ हो|
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हम कितनी देर तक प्रार्थना करते हैं या ध्यान करते हैं ? अंततः महत्व इसी का है| ध्यान और प्रार्थना के समय मन कहाँ रहता है ? यदि मन चारों दिशाओं में सर्वत्र घूमता रहता है तो ऐसी प्रार्थना किसी काम की नहीं है| हमें ध्यान की गहराई में जाना ही पड़ेगा और हर समय भगवान का स्मरण भी करना ही पड़ेगा| हम छोटी मोटी गपशप में, अखवार पढने में और मनोरंजन में घंटों तक का समय नष्ट कर देते हैं, पर भगवान का नाम पाँच मिनट भी भारी लगने लगता है| चौबीस घंटे का दसवाँ भाग यानि कम से कम लगभग अढाई तीन घंटे तो नित्य हमें भगवान का ध्यान करना ही चाहिए|
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति होती ही है वैसे ही भगवान के समक्ष बैठने से उनका अनुग्रह भी मिलता ही है| भगवान के समक्ष हमारे सारे दोष भस्म हो जाते हैं| ध्यान साधना से सम्पूर्ण परिवर्तन आ सकता है| जब एक बार निश्चय कर लिया कि मुझे भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए तो भगवान आ ही जाते है .... यह आश्वासन शास्त्रों में भगवान ने स्वयं ही दिया है| जब ह्रदय में अहैतुकी परम प्रेम और निष्ठा होती है तब भगवान मार्गदर्शन भी स्वयं ही करते हैं| पात्रता होने पर सद्गुरु का आविर्भाव भी स्वतः ही होता है| प्रेम हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है और आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं| इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पडती है| परमप्रेम ही वह कीमत यानि शुल्क है|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान को नमन ! आप सब की जय हो |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२८ अप्रेल, २०१८

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