(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत). खेचरी मुद्रा .....
(यह एक परिचयात्मक लेख ही है| पूरी विधि किसी अधिकृत योग-गुरु से ही सीखें| मैं यह विधि सिखाने के लिए अधिकृत नहीं हूँ| जो क्रियायोग की साधना करते हैं, उनके लिए यह विधि बहुत अधिक सहायक है| सन्यासियों के कुछ अखाड़ों में इसका अभ्यास अनिवार्य है|)
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खेचरी मुद्रा .... यह सदा एक गोपनीय विषय रहा है जिसकी चर्चा सिर्फ निष्ठावान एवम् गंभीर रूप से समर्पित साधकों में ही की जाती रही है| पर रूचि जागृत करने हेतु इसकी सार्वजनिक चर्चा भी आवश्यक है| ध्यानस्थ होकर योगी महात्मागण अति दीर्घ काल तक बिना कुछ खाए-पीये कैसे जीवित रहते हैं? इसका रहस्य है ....'खेचरी मुद्रा'|
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ध्यान साधना में तीब्र गति लाने के लिए भी खेचरी मुद्रा बहुत महत्वपूर्ण है| 'खेचरी' का अर्थ है ..... ख = आकाश, चर = विचरण| अर्थात आकाश तत्व यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण| जो बह्म में विचरण करता है वही साधक खेचरी सिद्ध है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः उपलब्ध हो जाता है पर प्रगाढ़ ध्यानावस्था में देखा गया है कि साधक की जीभ स्वतः उलट जाती है और खेचरी व शाम्भवी मुद्रा अनायास ही लग जाती है|
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वेदों में 'खेचरी शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है| वैदिक ऋषियों ने इस प्रक्रिया का नाम दिया -- 'विश्वमित्'| "दत्तात्रेय संहिता" और "शिव संहिता" में खेचरी मुद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है|
शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है .....
"करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम् | लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम् ||"
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतगामी करता है, अर्थात जीभ को तालुका में बैठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
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जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
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आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
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योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे| वे खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे 'तालब्य क्रिया' कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं| इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों में जिह्वा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरुकृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे| तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
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हमारे महान पूर्वज स्थूल भौतिक सूर्य की नहीं बल्कि स्थूल सूर्य की ओट में जो सूक्ष्म भर्गःज्योति: है उसकी उपासना करते थे| उसी ज्योति के दर्शन ध्यान में कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्रार के मध्य) में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में, और साथ साथ श्रवण यानि अनाहत नाद (प्रणव) के रूप में सर्वदा होते हैं|
ध्यान साधना में सफलता के लिए हमें इन का होना आवश्यक है:-----
(1) भक्ति यानि परम प्रेम|
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा|
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग|
(4) शरणागति और समर्पण|
(5) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान|
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन|
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खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि के बारे में पढ़ा है पर मुझे उसका अभी तक ज्ञान नहीं है| सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर, पद्मासन में बैठ कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
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भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, तो उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
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जो योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की गुरु परम्परा में क्रियायोग साधना में दीक्षित हैं उनके लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास अनिवार्य है| क्रिया योग की साधना खेचरी मुद्रा में होती है| जो खेचरी मुद्रा नहीं कर सकते उनको जीभ ऊपर को ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखनी पडती है| खेचरी मुद्रा में क्रिया योग साधना अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२५ अप्रेल २०१३
(यह एक परिचयात्मक लेख ही है| पूरी विधि किसी अधिकृत योग-गुरु से ही सीखें| मैं यह विधि सिखाने के लिए अधिकृत नहीं हूँ| जो क्रियायोग की साधना करते हैं, उनके लिए यह विधि बहुत अधिक सहायक है| सन्यासियों के कुछ अखाड़ों में इसका अभ्यास अनिवार्य है|)
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खेचरी मुद्रा .... यह सदा एक गोपनीय विषय रहा है जिसकी चर्चा सिर्फ निष्ठावान एवम् गंभीर रूप से समर्पित साधकों में ही की जाती रही है| पर रूचि जागृत करने हेतु इसकी सार्वजनिक चर्चा भी आवश्यक है| ध्यानस्थ होकर योगी महात्मागण अति दीर्घ काल तक बिना कुछ खाए-पीये कैसे जीवित रहते हैं? इसका रहस्य है ....'खेचरी मुद्रा'|
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ध्यान साधना में तीब्र गति लाने के लिए भी खेचरी मुद्रा बहुत महत्वपूर्ण है| 'खेचरी' का अर्थ है ..... ख = आकाश, चर = विचरण| अर्थात आकाश तत्व यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण| जो बह्म में विचरण करता है वही साधक खेचरी सिद्ध है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः उपलब्ध हो जाता है पर प्रगाढ़ ध्यानावस्था में देखा गया है कि साधक की जीभ स्वतः उलट जाती है और खेचरी व शाम्भवी मुद्रा अनायास ही लग जाती है|
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वेदों में 'खेचरी शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है| वैदिक ऋषियों ने इस प्रक्रिया का नाम दिया -- 'विश्वमित्'| "दत्तात्रेय संहिता" और "शिव संहिता" में खेचरी मुद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है|
शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है .....
"करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम् | लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम् ||"
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतगामी करता है, अर्थात जीभ को तालुका में बैठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
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जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
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आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
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योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे| वे खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे 'तालब्य क्रिया' कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं| इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों में जिह्वा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरुकृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे| तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
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हमारे महान पूर्वज स्थूल भौतिक सूर्य की नहीं बल्कि स्थूल सूर्य की ओट में जो सूक्ष्म भर्गःज्योति: है उसकी उपासना करते थे| उसी ज्योति के दर्शन ध्यान में कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्रार के मध्य) में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में, और साथ साथ श्रवण यानि अनाहत नाद (प्रणव) के रूप में सर्वदा होते हैं|
ध्यान साधना में सफलता के लिए हमें इन का होना आवश्यक है:-----
(1) भक्ति यानि परम प्रेम|
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा|
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग|
(4) शरणागति और समर्पण|
(5) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान|
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन|
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खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि के बारे में पढ़ा है पर मुझे उसका अभी तक ज्ञान नहीं है| सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर, पद्मासन में बैठ कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
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भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, तो उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
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जो योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की गुरु परम्परा में क्रियायोग साधना में दीक्षित हैं उनके लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास अनिवार्य है| क्रिया योग की साधना खेचरी मुद्रा में होती है| जो खेचरी मुद्रा नहीं कर सकते उनको जीभ ऊपर को ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखनी पडती है| खेचरी मुद्रा में क्रिया योग साधना अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२५ अप्रेल २०१३
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