दक्षिणामूर्ति भगवान शिव .....
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वे एक बरगद के वृक्ष के नीचे बैठे हैं, उनका
मुंह दक्षिण की ओर है। हमारी इस देह में भ्रूमध्य
पूर्व दिशा है, शिखास्थल पश्चिम है, सहस्त्रार उत्तर दिशा है, और उस से
विपरीत दिशा दक्षिण है| मुझे भगवान शिव की अनुभूति गहन ध्यान में सहस्त्रार
में होती है, जहाँ उनके चरण कमल हैं और सम्पूर्ण सृष्टि की अनंतता उनकी
देह है| उनकी कृपा मुझ अकिंचन पर निरंतर बरस रही है| इस देह में मैं उनकी
दक्षिण दिशा में हूँ, मेरा मुंह उनकी ओर व उनका मुंह मेरी ओर है, अतः मेरे
लिए वे दक्षिणामूर्ति भगवान शिव हैं| माया का आवरण हटते ही मैं उनके साथ एक
हूँ|
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आत्म-साक्षात्कार यानि आत्म-ज्ञान हमारा परम-धर्म है। निरंतर ब्रह्मचिंतन, ध्यान, मन्त्र जप, और प्रभुप्रेम हमारा स्वभाव बन जाये। उस स्वभाव में स्थायी स्थिति हमारे लिए अति आवश्यक है।
भगवान् शिव के ही एक प्रतीकात्मक रूप दक्षिणामूर्ति हैं, जो मौन से ही परब्रह्म तत्त्व की शिक्षा देते हैं। वे ज्ञान और ध्यान के देवता हैं। अपने दाहिने पैर के नीचे जिसे उन्होने दबा रखा है वह प्रतीक रूप में अज्ञानता है। हम भी मौन हो कर परमशिव की सर्वव्यापक अनंतता व उससे भी परे का ध्यान कर उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त करें। हम ब्रह्ममय होकर परम आनंद से भर जाएँगे।
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गुरुओं के गुरु वे
भगवान परमशिव, गुरु रूप में मेरे सर्वस्व हैं| उनकी कृपा मुझ अकिंचन पर
निरंतर बरसती रहे, वे मेरे अज्ञान को दूर कर मुझे विक्षेप व आवरण के पाशों
से मुक्त करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मई २०१८
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मई २०१८
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