मकर-संक्रांति - उर्ध्वगति का उत्सव और आत्मसूर्य की ओर प्रयाण है; निरंतर सर्वव्यापी कूटस्थ-चैतन्य में रहें, जिसमें स्थिति ही ब्राह्मी-स्थिति है जिसका उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में दिया है ---
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भ्रूमध्य में परमात्मा की अनंतता का ध्यान करें। स्वयं को सीमित न करें। जो कुछ भी हमें सीमित करता है, उसका उसी क्षण त्याग कर दें। बिना तनाव के भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, पूर्णखेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में, प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए, उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का गुरु महाराज के आदेशानुसार नित्य नियमित ध्यान करते रहें। शिवकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति एक न एक दिन ध्यान में प्रकट होगी। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय-ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ-चैतन्य है जिसमें स्थिति ही योगमार्ग की उन्नत साधनाओं का आरंभ है। साधनाएँ गोपनीय हैं जिनकी चर्चा उन साधकों से ही हो सकती है, जिनका जीवन पूर्णतः परमात्मा को समर्पित है।
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परमात्मा की कृपा से आगे के सब द्वार खुल जायेंगे। कहीं पर भी कोई अंधकार नहीं रहेगा। भगवान हमारे से सिर्फ हमारा प्रेम माँगते हैं जो हम तभी दे सकेंगे जब हमारे में सत्यनिष्ठा होगी, अन्यथा नहीं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२३
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