Tuesday 23 August 2016

हमें कुसंग का सर्वदा त्याग ही नहीं अपितु उन सब की संगति भी छोड़ देनी चाहिए जिनके ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं है .....

हमें कुसंग का सर्वदा त्याग ही नहीं अपितु उन सब की संगति भी छोड़ देनी चाहिए जिनके ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं है .....
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ईश्वर भक्ति वीरता को जन्म देती है जो वीर नहीं उससे भक्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह प्रेम से नहीं डर से बंधा है हे मनुष्य, तू उस वीरता को धारण कर और चक्रवर्ती बन|
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"जाके ह्रदय ना राम वैदेही, तजिहे ताहि कोटि वैरी सम, यद्यपि परम सनेही |
तज्यो पिता प्रह्लाद, विभीषण बंधू , भरत महतारी|
बलि गुरु तज्यो, कंत बृजबानितनी, भये मुद मंगलकारी !!
नाते नेह राम के मनियत, सुह्रदय सु -सेब्य जहाँ लौ|
अंजन कहा आँखि जेहि फूटे , बहुतेक कहौ कहा लौ|
तुलसी सौ सब भांति परम हित , पूज्य प्राण ते प्यारौ|
जासो होए सनेह राम पद , एतो मतों हमारो ||"
अर्थात् ........
जिसके ह्रदय में भगवान के लिए भक्ति नहीं हो, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़ देना चाहिए|
जिस प्रकार प्रहलाद ने पिता का, विभीषण ने भाई का, भरत ने माता का और गोपियाँ पति का त्याग कर मुदित मंगलकारी हुईं| अंजन लगाने से यदि आँख फूट जाये और रोशनी ही चली जाये तो क्या लाभ अंजन लगाने से ? जिस के संग से भगवान से प्रेम बढे वह ही परम हितकारी है, यही हमारा मत है|
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मीरा बाई ने बहुत दुखी होकर संत तुलसीदास जी से सलाह माँगी थी .......
"घर के स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई|
साधू संग अरु भजन करत मोहि,
देत कलेश अधनाइ||
बालेपन से मीरा किनी, गिरिधर लाल मिताई|
सो तो अब छुटै नहीं, क्यों हो लगी लगन बरियाई||"
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तुलसीदास जी ने मीराबाई को सलाह देते हुए ही उपरोक्त पद लिखा था जो आज भी प्रासंगिक है| तुलसीदास जी का उत्तर मिलते ही मीराबाई अपना घर मेवाड़ छोड़कर स्थायी रूप से वृन्दावन आ गईं|

जब तक मीराबाई मेवाड़ में थीं वहाँ विधर्मियों का कोई आक्रमण नहीं हुआ| उनके मेवाड़ छोड़ने के पश्चात ही वहाँ विधर्मियों के आक्रमण आरम्भ हो गए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

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