Tuesday, 23 August 2016

सुख, संपति, परिवार और बड़ाई का मोह वास्तव में राम भक्ति में बाधक हैं ...

सुख, संपति, परिवार और बड़ाई का मोह वास्तव में राम भक्ति में बाधक हैं .................
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मेरे एक प्रिय विद्वान और भक्त मित्र ने जिनका विचार अपनी सरकारी सेवा से निवृति के पश्चात विरक्त साधू बनने का था, सेवा-निवृति से पहिले ही अपनी स्वयं की कमाई से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान में जो चार धामों में भी आता है, अपने लिए एक विशाल आश्रम का भवन बनवा लिया| एक अच्छी सी कार भी खरीद ली| भक्तों के रहने का स्थान, सत्संग करने का कमरा, एक मंदिर भी बनवा लिया, और अन्य सारी सुविधाएँ भी जुटा लीं| सेवा-निवृत होते ही आराम से विधिवत रूप से बाबाजी बन गए और अपने आश्रम में रहने लगे|
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यहीं से उनकी सारी समस्याओं का आरम्भ हुआ| अच्छी सरकारी नौकरी में थे अतः पेंशन के अच्छे रूपये आते थे और बचत भी कर रखी थी अतः कोई आर्थिक समस्या तो थी नहीं| पर मायावी सांसारिक मोह नहीं छुटा| उनके पूर्वाश्रम की पत्नी बड़ा अनुनय विनय कर के शिष्या और सेविका बन कर आ गयी, धीरे धीरे पूर्वाश्रम का पुत्र और पुत्रवधू भी आ गयी| पुत्रवधू को डर था कि कहीं बाबाजी अपनी करोड़ों की संपत्ति किसी को चेला बनाकर नहीं दे दे अतः वह सारी संपति अपने नाम करवाने के लिए कलह करने लगी| पूर्व पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू व पुत्रवधु के पीहर वाले सब एक होकर बाबाजी से लड़ाई झगड़े और उत्पीड़न तक पर उतर आये|
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बाबाजी मुझसे सलाह और सहायता माँगने लगे| मैंने उनको सलाह दी कि इस सारी संपति को बेचकर अपने गुरु स्थान वृन्दावन चले जाओ और रुपया पैसा अपने विवेकानुसार परमार्थ में खर्च कर दो, या अपना स्थान अपनी गुरु-परम्परा के साधुओं को सौंप दो| पर महात्मा जी को अपनी भव्य संपति से इतना मोह हो गया कि कहीं भी जाना उनको अच्छा नहीं लगा| वृन्दावन तो उनको बहुत गंदा स्थान लगा| उन्होंने मुझसे दो हट्टे-कट्टे दबंग अच्छे शिष्यों की व्यवस्था करने की प्रार्थना की|
मैंने उनसे कहा कि अच्छे शिष्य भी भाग्य से मिलते हैं, अतः मैं यह व्यवस्था नहीं कर सकूँगा| अब स्थिति यह है कि महात्मा जी मुझसे अनुरोध कर रहे हैं की मैं उनके आश्रम को संभाल लूँ और उनकी कहीं अन्यत्र व्यवस्था कर दूं| मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें मना कर दिया है| अब उनके इस मोह के कारण उनकी परंपरा के साधू भी उन्हें साधू ही नहीं मानते और उन्हें गृहस्थ बताते हैं|
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मैं और भी कुछ लोगों को जानता हूँ जो अपने घर, संपति, परिवार और बड़ाई के मोह से आध्यात्मिक मार्ग पर नहीं चल पाए|
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अभी हाल में ही मेरे एक और सेवानिवृत इंजिनियर मित्र ने अपने लिए एक बहुत बड़ा कोठीनुमा आश्रम बनवाया है और सपत्नीक उसमें रहते हैं| पति-पत्नी दोनों ही भक्त हैं और बड़े प्रेम से साथ रहकर साधना करने का प्रयास करते हैं| उन्हें कोई विशेष लाग-लपेट नहीं है| उनका पुत्र एक दुसरे नगर में अच्छे पद पर है जिसका स्वयं का मकान है|
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यह लेख लिखने का मेरा उद्देश्य यही बताना है कि जब और जिस भी समय वैराग्य हो जाये , या जब भी ईश्वर की एक झलक मिले, उसी समय विरक्त होकर गृह-त्याग कर देना चाहिए और किसी भी तरह की लाभ-हानि का चिंतन नहीं करना चाहिए|
गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य ही कहा है .......
"सुख संपति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई ||
ए सब राम भगति के बाधक | कहहिं संत तव पद अवराधक ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

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