(१७ अप्रेल २०१४)
"धर्म" और "अधर्म" में भेद क्या है .....
.
'धर्म' और 'अधर्म' इन पर जितनी चर्चाएँ हुई हैं, वाद विवाद, युद्ध और अति भयावह क्रूरतम अत्याचार और हिंसाएँ हुई हैं, उतनी अन्य किसी विषय पर नहीं| धर्म के नाम पर, अपनी मान्यताएं थोपने के लिए, अनेक राष्ट्रों और सभ्यताओं को नष्ट कर दिया गया, धर्म के नाम पर लाखों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ कर दी गईं जो आज भी अनवरत चल रही हैं| मनुष्य के अहंकार ने धर्म सम्बन्धी अपनी अपनी मान्यताएँ अन्यों पर थोपने के लिए सदा हिंसा का सहारा लिया है|
पर धर्म के तत्व को समझने का प्रयास सिर्फ भारतवर्ष में हुआ है| भारत का प्राण -- धर्म है| भारत सदा धर्म-सापेक्ष रहा है| धर्म की शरण में जाने का आह्वान सिर्फ भारतवर्ष से ही हुआ है| धर्म की रक्षा के लिए स्वयं भगवान ने यहाँ समय समय पर अवतार लिए है| धर्म की रक्षा हेतु ही यहाँ के सम्राटों ने राज्य किया है| धर्म की रक्षा के लिए ही असंख्य स्त्री-पुरुषों ने हँसते हँसते अपने प्राण दिए हैं|
"धर्म" और "अधर्म" में भेद क्या है .....
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'धर्म' और 'अधर्म' इन पर जितनी चर्चाएँ हुई हैं, वाद विवाद, युद्ध और अति भयावह क्रूरतम अत्याचार और हिंसाएँ हुई हैं, उतनी अन्य किसी विषय पर नहीं| धर्म के नाम पर, अपनी मान्यताएं थोपने के लिए, अनेक राष्ट्रों और सभ्यताओं को नष्ट कर दिया गया, धर्म के नाम पर लाखों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ कर दी गईं जो आज भी अनवरत चल रही हैं| मनुष्य के अहंकार ने धर्म सम्बन्धी अपनी अपनी मान्यताएँ अन्यों पर थोपने के लिए सदा हिंसा का सहारा लिया है|
पर धर्म के तत्व को समझने का प्रयास सिर्फ भारतवर्ष में हुआ है| भारत का प्राण -- धर्म है| भारत सदा धर्म-सापेक्ष रहा है| धर्म की शरण में जाने का आह्वान सिर्फ भारतवर्ष से ही हुआ है| धर्म की रक्षा के लिए स्वयं भगवान ने यहाँ समय समय पर अवतार लिए है| धर्म की रक्षा हेतु ही यहाँ के सम्राटों ने राज्य किया है| धर्म की रक्षा के लिए ही असंख्य स्त्री-पुरुषों ने हँसते हँसते अपने प्राण दिए हैं|
भारत में
धर्म की सर्वमान्य परिभाषा -- "परहित" को ही माना गया है| कणाद ऋषि के ये
वचन भी सबने स्वीकार किये हैं कि ---- जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की
सिद्धि हो वह ही धर्म है| पर यह भी विचार का विषय है कि अभ्युदय और
निःश्रेयस की सिद्धि कैसे हो सकती है|
महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं ---"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां" यानि धर्म का तत्व तो निविड़ अगम गुहाओं में छिपा है जिसे समझना अति दुस्तर कार्य है|
धर्म और अधर्म पर बहुत चर्चाएँ होती हैं| पर जहाँ तक मेरी अल्प और सीमित बुद्धि की समझ है ---- प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में धर्म छिपा है| यदि कोई अपने ह्रदय को पूछे तो हृदय सदा सही उत्तर देगा| मन और बुद्धि गणना कर के स्वहित यानि अपना स्वार्थ देखेंगे पर ह्रदय स्वहित नहीं देखेगा और सदा सही धर्मनिष्ठ उत्तर देगा|
ह्रदय में साक्षात भगवान ऋषिकेष जो बैठे हैं वे ही धर्म और अधर्म का निर्णय लेंगे| हमारी क्या औकात है ????? पर कोई उन्हें पूछें तो सही|
आपकी देहरूपी रथ का रथी -- आत्मा है, और सारथी -- बुद्धि है| बुद्धि -- कुबुद्धि और अशक्त भी हो सकता है| उसे आप पहिचान नहीं सकते क्योंकि उसकी पीठ आपकी ओर है| धर्माचरण का सर्वश्रेष्ठ कार्य यही होगा कि आप अपनी बुद्धि को सेवामुक्त कर के भगवान पार्थसारथी को अपने रथ की बागडोर सौंप दें| जहाँ भगवान पार्थसारथी आपके सारथी होंगे वहाँ जो भी होगा वह -- 'धर्म' ही होगा, 'अधर्म' कदापि नहीं|
अंततः मेरा ह्रदय तो यही कहता ही कि जो भी कार्य अपने अहँकार को परमात्मा को समर्पित कर, समष्टि के कल्याण के लिए किया जाए वही धर्म है| व्यष्टि का अस्तित्व भी समष्टि के लिए ही हो| यही धर्म है|
आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को प्रणाम| धन्यवाद|
कृपा शंकर
१७ अप्रेल २०१४
महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं ---"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां" यानि धर्म का तत्व तो निविड़ अगम गुहाओं में छिपा है जिसे समझना अति दुस्तर कार्य है|
धर्म और अधर्म पर बहुत चर्चाएँ होती हैं| पर जहाँ तक मेरी अल्प और सीमित बुद्धि की समझ है ---- प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में धर्म छिपा है| यदि कोई अपने ह्रदय को पूछे तो हृदय सदा सही उत्तर देगा| मन और बुद्धि गणना कर के स्वहित यानि अपना स्वार्थ देखेंगे पर ह्रदय स्वहित नहीं देखेगा और सदा सही धर्मनिष्ठ उत्तर देगा|
ह्रदय में साक्षात भगवान ऋषिकेष जो बैठे हैं वे ही धर्म और अधर्म का निर्णय लेंगे| हमारी क्या औकात है ????? पर कोई उन्हें पूछें तो सही|
आपकी देहरूपी रथ का रथी -- आत्मा है, और सारथी -- बुद्धि है| बुद्धि -- कुबुद्धि और अशक्त भी हो सकता है| उसे आप पहिचान नहीं सकते क्योंकि उसकी पीठ आपकी ओर है| धर्माचरण का सर्वश्रेष्ठ कार्य यही होगा कि आप अपनी बुद्धि को सेवामुक्त कर के भगवान पार्थसारथी को अपने रथ की बागडोर सौंप दें| जहाँ भगवान पार्थसारथी आपके सारथी होंगे वहाँ जो भी होगा वह -- 'धर्म' ही होगा, 'अधर्म' कदापि नहीं|
अंततः मेरा ह्रदय तो यही कहता ही कि जो भी कार्य अपने अहँकार को परमात्मा को समर्पित कर, समष्टि के कल्याण के लिए किया जाए वही धर्म है| व्यष्टि का अस्तित्व भी समष्टि के लिए ही हो| यही धर्म है|
आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को प्रणाम| धन्यवाद|
कृपा शंकर
१७ अप्रेल २०१४
श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् |
ReplyDeleteधर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥ – महाभारत
अर्थ – वेद और धर्मशास्त्र अनेक प्रकारके हैं । कोई एक ऐसा मुनि नहीं है जिनका वचन प्रमाण माना जाय । अर्थात श्रुतियों, स्मृतियों और मुनियोंके मत भिन्न-भिन्न हैं । धर्मका तत्त्व अत्यंत गूढ है – वह साधारण मनुष्योंकी समझसे परे है । ऐसी दशामें, महापुरूषोंने अथवा अधिकतर श्रेष्ठ लोगोंने जिस मार्गका अनुकरण किया हो, वहीं धर्मका मार्ग है, उसीको आचरणमें लाना चाहिए ।
धर्म का पालन ही हमारी रक्षा करेगा| धर्म के लक्षण मनुस्मृति में दिए हैं और वैशेषिक सूत्रों में उसको परिभाषित किया गया है| श्रुतियों में भी इसका वर्णन है| धर्म की रक्षा तो भगवान करते हैं|
ReplyDeleteइस देश को एकता के सूत्र में बाँधने का श्रेय सनातन धर्म को ही है, अन्य किसी कारण को नहीं| "अनेकता में एकता" सनातन धर्म के कारण ही है| हम अपने स्वधर्म का चिंतन करें, और उस पर दृढ़ रहें| हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें, और हमारी जड़ें हैं ... सनातन धर्म|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मई २०१८