माया (जो है नहीं, पर सत्य प्रतीत होती है) का एक आवरण और विक्षेप हमें सत्य का बोध नहीं होने देता। इस से कैसे बचें? ---
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जो सत्य को छिपा कर रखता है, और हमें निरंतर भ्रमित करता है, वह आवरण है। जब आवरण हटता है तभी हमें सत्य का पता चलता है। जीवन की अंतहीन भागदौड़ रूपी मृगतृष्णा को हम विक्षेप कह सकते हैं। हम इधर-उधर भटकते हैं, एक कार्य तो पूरा होता नहीं है, दूसरे के पीछे भाग पड़ते हैं, दूसरे को छोड़ तीसरे के पीछे; अपनी विफलता को छिपाने के लिये तरह तरह के बहाने बनाते हैं, यही विक्षेप है।
माया के और भी अनेक रूप हैं। सारे असुर और राक्षस यहीं हमारे अवचेतन मन में ही छिप कर बैठे हुए हैं, कहीं दूर नहीं है। ये मरते भी नहीं हैं, घूम-फिर कर बापस आ जाते हैं। इनके नाम गिनाता हूँ --
हमारा प्रमाद और दीर्घसूत्रता ही महिषासुर है। हमारा लोभ और लालच ही हिरण्यकशिपु है। हमारी कामुकता, वासनाएँ, और अहंकार रावण है। और भी इनके अनेक भाई-बंधु इधर-उधर हमारे अवचेतन मन में ही छिप कर बैठे हैं, जिन का काम ही धोखे से हमारा शिकार करना है।
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इन से बचने का एक ही उपाय है कि अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) भगवान को सौंप दो। दूसरा कोई उपाय नहीं है। तभी भगवान हम से सबसे पहिले हमारा मन मांगते हैं। मनुष्य का मन संसार की सबसे अशांत चीज है। नियंत्रित मन ही हमारा सबसे बड़ा मित्र है, और अनियंत्रित मन हमारा सब से बड़ा शत्रु है। सबसे पहिले यह मन ही परमात्मा को सौंप दो। गीता में भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
आचार्य शंकर के अनुसार इसका भावार्थ है कि -- तूँ मन्मना -- मुझमें ही मनवाला हो। मद्भक्त -- मेरा ही भक्त हो। मद्याजी -- मेरा ही पूजन करनेवाला हो और मुझे ही नमस्कार किया कर। इस प्रकार चित्त को मुझ में लगाकर मेरे परायण -- शरण हुआ तूँ मुझ,परमेश्वर को ही प्राप्त हो जायगा। अभिप्राय यह कि मैं ही सब भूतों का आत्मा और परमगति -- परम स्थान हूँ। ऐसा जो मैं आत्मरूप हूँ, उसीको तू प्राप्त हो जायगा। इस प्रकार पहले के माम् शब्द से आत्मानम् शब्दका सम्बन्ध है।
(Fix thy mind on Me, devote thyself to Me, sacrifice for Me, surrender to Me, make Me the object of thy aspirations, and thou shalt assuredly become one with Me, Who am thine own Self.)
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भगवान दुबारा कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
आचार्य शंकर ने इसका भावार्थ किया है कि -- तूँ मुझ में मन वाला अर्थात् मुझ में चित्त वाला हो। मेरा भक्त अर्थात् मेरा ही भजन करने वाला हो, और मेरा ही पूजन करनेवाला हो, तथा नमस्कार भी मुझे ही किया कर। इस प्रकार करता हुआ, मुझ वासुदेव में ही (अपने) समस्त साध्य, साधन और प्रयोजन को समर्पण करके तूँ मुझे ही प्राप्त होगा। इस विषय में मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा प्रिय है। (Dedicate thyself to Me, worship Me, sacrifice all for Me, prostrate thyself before Me, and to Me thou shalt surely come. Truly do I pledge thee; thou art My own beloved.)
भगवान को सत्यप्रतिज्ञ जानकर तथा भगवान की भक्ति का फल निःसन्देह - ऐकान्तिक मोक्ष है - यह समझकर, मनुष्य को केवल एकमात्र भगवान की शरण में ही तत्पर हो जाना चाहिये।
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अनियंत्रित अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के भी धर्म होते हैं जो हमें भटकाते हैं। उन सब को छोड़कर भगवान हमें शरणागत होने को कहते है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
यह गीता का चरम श्लोक है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। भाष्यकारों ने इसकी जो व्याख्याएँ लिखी हैं वे इतनी लंबी हैं कि वे इस लेख में समा नहीं सकतीं। संक्षेप में इसका भावार्थ है -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
(Give up then thy earthly duties, surrender thyself to Me only. Do not be anxious; I will absolve thee from all thy sin.)
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मेरा एक साधक होने का, और उपासना करने का भाव मिथ्या था, और है। एकमात्र सत्य स्वयं परमात्मा हैं। यह सारी सृष्टि परमात्मा की एक लीला है जो निरंतर परिवर्तनशील है।
हे भगवती, रक्षा करो। त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अक्तूबर २०२२
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