मेरा जीवन दर्शन ---
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मुझे ईश्वर की साधना/उपासना के लिए अब कोई प्रयास या औपचारिकता नहीं करनी पड़ती। सारी साधना/उपासना जगन्माता भगवती स्वयं करती हैं। भगवान मेरी माता भी हैं, पिता भी है, और सर्वस्व भी हैं। मैं तो एक निमित्त-मात्र हूँ। मुझे किसी के उपदेश की अब कोई आवश्यकता नहीं है।
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कर्मयोग --- मेरा कर्मयोग सिर्फ और सिर्फ भगवान का निरंतर प्रेममय स्मरण और निज जीवन में उनकी अभिव्यक्ति है। इसके अतिरिक्त मेरा कोई अन्य कर्मयोग नहीं है। मेरे कर्मयोग के तीन भाग हैं --
पहला भाग तो यह कि अन्तःकरण की चेतना सदा कूटस्थ-ब्रह्म में स्थित रहे। उन्हीं का निरंतर दर्शन और श्रवण होता रहे।
दूसरा भाग गोपनीय है जिसकी चर्चा अन्य व्यक्ति की पात्रता देखकर ही की जा सकती है, हर किसी से नहीं।
तीसरा भाग है कि -- यह मोटरगाड़ी जिस पर मैं लोकयात्रा कर रहा हूँ, वह गाड़ी सदा स्वस्थ रहे और ठीक से चलती रहे।
इनके अतिरिक्त मेरा कोई अन्य कर्मयोग नहीं है।
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भक्तियोग और ज्ञानयोग -- मेरा स्वधर्म ही मेरा भक्तियोग और ज्ञानयोग है। मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ, नश्वर देह नहीं। आत्मा का यानि मेरा स्वधर्म है -- परमात्मा का निरंतर परमप्रेममय स्मरण, चिंतन, और निज जीवन में उनकी अभिव्यक्ति। आत्मा सदा परमात्मा में रमण करती हुई उनके साथ एक रहे -- मेरे लिए यही मुक्ति है और यही मोक्ष है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरा स्वधर्म नहीं है। मैं दुबारा कहता हूँ कि यही मेरी भक्ति है और यही मेरा ज्ञान है। मेरा अनुभव ही मेरा प्रमाण है।
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सांसारिक जीवन से रुचि समाप्त हो गई है। जब तक भगवान चाहेंगे तब तक यह मोटरगाड़ी चलती रहेगी। अब इस संसार में किसी से कोई राग-द्वेष नहीं है। मन पूर्णतः भर गया है, कोई कामना नहीं है। जीवन में अच्छा-बुरा जो भी हुआ वह सब और उन के कर्मफल -- भगवान को समर्पित कर दिये हैं। भगवान की इच्छा ही मेरी इच्छा है।
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मेरा एकमात्र संबंध सिर्फ परमात्मा से ही रह गया है। सभी संबंधियों, मित्रों और परिचितों में भगवान ही दिखाई देते हैं। इस शरीर में भी भगवान ही जी रहे हैं, मैं नहीं। इस शरीर के शांत होने के पश्चात मैं वहीं रहूँगा जिस के बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- "यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।" मेरी श्रद्धा और विश्वास मुझे वहाँ ले जाएँगे। मैं न तो किसी प्रेतयोनि में जाऊंगा और न किसी पितृयोनी में। मैं नित्यमुक्त आत्मा हूँ जो सदा परमात्मा के साथ रहेगी।
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मेरे परिवार वालों को मेरे लिए न तो किसी पिंडदान की आवश्यकता है और न ही किसी श्राद्ध की। मूलाधार चक्र में भगवती कुंडलिनी ही पिंड है, और सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति ही विष्णुपद है। दूसरे शब्दों में इस सृष्टि को जिसने धारण कर रखा है, वह शक्ति राधा जी हैं, जो कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में व्यक्त हैं; और कूटस्थ ज्योति व नाद स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। दिन में अनेक बार जागृत भगवती कुंडलिनी सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठकर सहस्त्रार में विष्णुपद को नमन कर के बापस लौट आती हैं। यही मेरा पिंडदान है, और श्रद्धा के साथ की हुई यह क्रिया ही श्राद्ध है।
कूटस्थ का केंद्र उन्नत साधकों में इस शरीर से बाहर बहुत ऊपर परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव में चला जाता है। परमशिव एक अनुभूति है, जो बुद्धि से परे है। उसे सिर्फ अनुभूत ही किया जा सकता है। इस विषय पर भी सार्वजनिक चर्चा नहीं की जा सकती।
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सबसे अधिक महत्वपूर्ण तो भगवान की भक्ति है, जिसके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। एक बार वह भक्ति जागृत हो जाये तो सारा ज्ञान अपने आप ही आ जाता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है। वह उच्चतम भक्ति है। वह प्राप्त हो जाये तो भगवत्-प्राप्ति में विलंब नहीं होता।
आप सभी को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अक्तूबर २०२२
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