कूटस्थ में भगवान श्रीकृष्ण सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं ---
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भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण -- सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं, इसलिए वे वासुदेव हैं। वे कूटस्थ भी हैं, क्योंकि वे समान रूप से सर्वत्र व्याप्त होने के बाद भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। इन भौतिक आँखों से वे नहीं दिखाई देते लेकिन जो भक्त कूटस्थ चैतन्य में हैं, उन को भगवान की अनुभूति निरंतर होती रहती है। यह कूटस्थ शब्द बड़े गहन अर्थ वाला है क्योंकि यह भगवान श्रीकृष्ण की भाषा है। भगवान गीता में कूटस्थ की उपासना करने को कह रहे हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
अर्थात् - परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् - इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् - इस संसारमें क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकारके पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है।
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हिन्दू दर्शन में "कूटस्थ" शब्द -- आत्मा, पुरुष, ब्रह्म तथा ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता है। कूटस्थ का अर्थ है कूट का अधिष्ठान अथवा आधार। विभिन्न स्वनामधन्य भाष्यकारों ने इस शब्द की बहुत विस्तृत विवेचना की है। कूटस्थ होने के कारण ब्रह्म अचल और नित्य है। वह सदा एक रूप में रहनेवाला पारमार्थिक तत्व है।
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योग साधनाओं में भ्रूमध्य में ध्यान करते करते गुरु कृपा से एक दिन ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। उस ज्योति के साथ साथ प्रणव की ध्वनि भी सुनाई देती है। उस सर्वव्यापक ब्रह्मज्योति और नाद का ही ध्यान किया जाता है। उस ब्रहमज्योति और नाद को ही मैं कूटस्थ कहता हूँ। उसका केंद्र धीरे धीरे ऊपर उठते उठते परमशिव तक चला जाता है। उसकी चेतना में निरंतर रहना ही कूटस्थ चैतन्य है।
इस विषय पर मैं अनेक लेख लिख चुका हूँ। और लिखने की इच्छा नहीं है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ अक्तूबर २०२२
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