Monday, 24 October 2022

मेरे उपास्य देव भगवान परमशिव की एक अनुभूति ---

 मेरे उपास्य देव भगवान परमशिव की एक अनुभूति ---

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परमशिव का अर्थ है परम-कल्याणकारी। परमशिव एक अद्वैतानुभूति है जो गुरुकृपा या शिवकृपा से उन सभी साधकों को होती है जो शिव की ज्योतिर्मय विराट अनंतता का ध्यान करते हैं। यह बुद्धि से परे का विषय है। जिनका कभी जन्म ही नहीं हुआ, उनकी कभी मृत्यु भी नहीं हो सकती। उन मृत्युंजयी परमशिव के साथ गहरे ध्यान में कोई भी साधक स्वयं भी परमशिव ही हो जाता है। इस देह रूपी वाहन का जन्म और मृत्यु हो सकती है, लेकिन परमशिव चेतना की नहीं।
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परमशिव शब्द का प्रयोग भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने "सौन्दर्य लहरी" नामक ग्रंथ में किया है। तत्पश्चात कश्मीर शैव दर्शन के आचार्यों, विशेष कर उनकी एक शाखा "प्रत्यभिज्ञा" के आचार्यों ने इसका प्रयोग किया है। वेदांती महात्माओं के सत्संग में भी हमें यह शब्द बहुत सुनने को मिलेगा। मुझे इसकी अनुभूति सिद्ध महात्माओं के सत्संग और स्वयं भगवान परमशिव की कृपा से हुई है।
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हमें परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति हो, इस पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए। जितनी देर हम स्वाध्याय करते हैं, उससे सात-आठ गुणा अधिक समय तक हमें परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं) सुषुम्ना मार्ग के सभी चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रारचक्र का भी भेदन कर ब्रह्मरंध्र से भी बहुत ऊपर परमात्मा की अनंतता में विचरण करने लगती है। तब हमें विस्तार की अनुभूतियाँ होती हैं। सूक्ष्म जगत में एक ज्योतिर्मय चक्र और भी है, जिस से भी पार जाना पड़ता है। वहाँ एक पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन होते हैं। वहाँ आलोक ही आलोक है। कहीं कोई अंधकार नहीं है। वह पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र पंचमुखी महादेव है। जब उनके दर्शन होने लगें तब स्वयं को उनमें समर्पित कर दो। फिर इधर-उधर कहीं भी मुड़कर मत देखो। पीछे की तरफ तो भूल से भी मत देखो। पीछे की ओर महाकाल, यानि निश्चित मृत्यु है। उस नक्षत्र का भी भेदन करने पर जो अनुभूति होती है, वह परमशिव है। कुंडलिनी महाशक्ति वहीं परमशिव से मिलती हैं। वहीं मुक्ति और मोक्ष है, वहीं कैवल्य है।
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जो परमशिव हैं वे ही सदाशिव हैं जो सदा कल्याणकारी और नित्य मंगलमय हैं।
वे ही रुद्र हैं। ‘रु’ का अर्थ है -- दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है -- द्रवित करना या हटाना। दुःख को हरने वाला रूद्र है।
दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है --- 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा। परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है।
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उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है, जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है। पहले मुझे अनेक शिवलिंगों की अनुभूतियाँ होती थीं। अब तो एक ही शिवलिंग दिखाई देता है -- मूलाधार चक्र पर। ऊपर ही ऊपर अनंत से परे तो स्वयं भगवान परमशिव हैं।
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परमशिव ही ऊर्ध्वमूल है, जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अक्तूबर २०२२

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