Tuesday, 19 April 2022

भगवान की भक्ति पर कितना भी लिखो, कोई अंत नहीं है ---

 भारत की आत्मा ही आध्यात्म है, और सनातन-धर्म ही भारत का प्राण है। यह भारत भूमि धन्य है। यहाँ धर्म, भक्ति, और ज्ञान पर जितना चिंतन और विचार हुआ है, उतना पूरे विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है। भगवान की भक्ति पर कितना भी लिखो, कोई अंत नहीं है। गंधर्वराज पुष्पदंत विरचित "शिव महिम्न स्तोत्र" का ३२वाँ श्लोक कहता है --

"असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी॥
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥३२॥"
अर्थात् -- यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड़ की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।
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कबीर जी का भी एक दोहा है --
"सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥"
अर्थात् - यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।
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रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत तो भक्ति के ही ग्रंथ हैं।
"मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥" (रामचरितमानस)
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नारद भक्तिसूत्र और शांडिल्य भक्तिसूत्रों का स्वाध्याय एक बार अवश्य कर लेना चाहिए। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२५ मार्च २०२२

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