Tuesday, 19 April 2022

सौ बात की एक बात, जो बड़े काम की है ---

 सौ बात की एक बात, जो बड़े काम की है ---

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"निंदा" और "स्तुति" -- ये दोनों एक ही माँ की जुड़वा सन्तानें और सगी बहिनें हैं, जो एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकतीं। ऐसे ही "बुराई" और "भलाई" यानि "अपयश" और "यश" -- ये दोनों जुड़वाँ सगे भाई भी उसी माँ की सन्तानें हैं, और एक-दूजे के लिए हैं। जहाँ एक भाई-बहिन रहेगा, वहीं दूसरे भी सब आ जाएँगे। उपरोक्त सभी जुड़वाँ भाई-बहिनें सदा हमारी पीठ के पीछे खड़े रहते हैं, और पीठ पीछे से ही हमारे ऊपर चढ़ते हैं। इसलिए अपनी पीठ को हर समय संभाल कर रखो। अपनी पृष्ठभूमि में (पीठ में) सदा भगवान को बैठा कर रखो, अन्य किसी को भूल से भी वहाँ प्रवेश मत करने दो।
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संसार के लोगो, एक बात बड़े ध्यान से सुन लो, आप कहीं जा रहे हो, और पीठ पीछे से अचानक ही एक शेर आकर आपको पकड़ ले और पंजों के नीचे दबाकर बैठ जाये तो आप क्या कर सकते हो? आप न तो कहीं भाग सकते हो, और न ही वहाँ दबे रह सकते हो। आप किसी भी काम के नहीं रहते और शेर महाराज से यही प्रार्थना कर सकते हो कि मेरे भाई, मेरे माँ-बाप, तूँ मुझे जल्दी-जल्दी मार कर खा जा, और अपना काम खत्म कर। वह शेर आपको जितनी जल्दी मार कर खा जाएगा, उतनी ही जल्दी आप मुक्त हो जाओगे।
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यही हालत मेरी हो रही है। मुझे आजकल भगवान ने पकड़ रखा है, इसलिए संसार के किसी काम का नहीं रहा हूँ। संसार के लोगो, मुझे माफ करना, मैं अब आपके किसी काम नहीं आ सकता। संसार के सारे पहलवान मिल कर भी मुझे भगवान की पकड़ से कभी नहीं छुटा सकते। सामने ठाकुर जी खुद बैठे हैं, जो हाथ में कभी तो तीर-कमान, और कभी सुदर्शन चक्र ले लेते हैं; कभी कभी पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ भी हो जाते हैं। पीठ पीछे हनुमान जी अपनी गदा लेकर युद्ध-मुद्रा में खड़े हैं। ऊपर दूर कहीं अनंत से भी परे ठाकुर जी खुद अपने शिवरूप में बैठे हुए सब तमाशा देखते हुए मजे ले रहे हैं। उनकी चक्की में तो मैं जीवात्मा ही पिस रहा हूँ। पता नहीं क्यों यह सब नाटकबाजी कर रहे हैं, और मुझे मुक्त नहीं करते? उन से बच कर जाने का कोई मार्ग भी तो नहीं है। जिधर देखता हूँ, उधर वे ही वे दिखाई देते हैं। इसलिए मजबूरी में अब उन्हीं को समर्पण कर दिया है। और कर भी क्या सकता हूँ?
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यह "भक्तिमाता" भी पता नहीं क्यों मुझसे बहुत अधिक नाराज है? "ज्ञान महाराज" नाम के अपने एक बेटे को तो मेरे सामने बैठा दिया है, पर "वैराग्य महाराज" नाम के अपने दूसरे पुत्र को पता नहीं कहाँ छिपा दिया है। वह भूल से भी कहीं दिखाई नहीं देता। लगता है बहुत पहले से ही वह कहीं किसी कुम्भ के मेले में खो गया है।
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असली मजा तो पवनपुत्र हनुमान जी ले रहे हैं। मैं जब सांस भीतर लेता हूँ तो वे बड़े प्रसन्न होकर मेरी सूक्ष्म देहस्थ सुषुम्ना नाड़ी की उप ब्रहमनाड़ी में मूलाधारचक्र से सब चक्रों को पार करते हुए सहस्त्रारचक्र में चले जाते हैं। वहाँ कुछ पलों तक आनंद लेते हैं, और फिर मेरे सांस छोड़ते ही धीरे-धीरे फिर बापस नीचे आ जाते हैं। उनका आनंद ही मेरा आनंद है। वे खुश तो मैं भी खुश !! कभी कभी वे अपने साथ ब्रह्मरंध्र के मार्ग से बाहर भी ले जाते हैं और बापस भी ले आते हैं। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती से किसी भूत-प्रेत या पिशाच का साहस भी नहीं होता आसपास आने का।
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ठाकुर जी, अब मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। जब तक चाहो तब तक मुझे पकड़ कर रखो। मैं भी निर्भय और बेशर्म हो गया हूँ। आपकी पकड़ से मुझे बहुत आनंद आने लगा है, जिसे मैं अब खोना नहीं चाहता।
और हे भक्तिमाता, एक न एक दिन आप भी खुद मुझसे परेशान होकर अपने "वैराग्य महाराज" नाम के पुत्र का सत्संग मुझ से करा ही दोगी। आपकी भी जय हो।
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हे मित्रो, इस थोड़े लिखे को ही बहुत समझ लेना। बहुत काम की बात है। आप सब की भी जय हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मार्च २०२२

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