Tuesday 19 April 2022

"श्रीगुरु चरण सरोज रज" में हमें आश्रय मिले ---

 "श्रीगुरु चरण सरोज रज" में हमें आश्रय मिले ---

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आध्यात्मिक रूप से श्रीगुरुचरणों में जब एक बार भी हमारे सिर का नमन हो जाता है, तब फिर हमारा सिर फिर बापस कभी नहीं उठ सकता, झुका ही रहता है। यदि सिर बापस उठ गया है तो इसका अर्थ है कि सिर कभी झुका ही नहीं था।
गुरु का साथ शाश्वत है। साधना में सिद्धि मिलते ही हम गुरु के साथ एक हो जाते हैं। कहीं पर किसी भी तरह का कोई भेद नहीं रहता। श्रीगुरु चरणों में हम अर्पित कर ही क्या सकते हैं? हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के सिवाय, और है ही क्या हमारे पास? इन्हें पूरी तरह अर्पित कर देना चाहिए।
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'श्री' शब्द में 'श' का अर्थ है श्वास, 'र' अग्निबीज है, और 'ई' शक्तिबीज। श्वास रूपी अग्नि और उसकी शक्ति ही 'श्री' है। श्वास का संचलन प्राण तत्व के द्वारा होता है। प्राण तत्व -- सुषुम्ना नाड़ी में सोम और अग्नि के रूप में संचारित होता है। श्वास उसी की प्रतिक्रिया है। जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है।
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सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति - श्रीगुरु महाराज के चरण-कमल हैं। उस ज्योति का ध्यान श्रीगुरुचरणों का ध्यान है। उस ज्योति-पुंज का प्रकाश "श्रीगुरुचरण सरोज रज" है। सहस्त्रारचक्र में स्थिति श्रीगुरुचरणों में आश्रय है। खेचरी-मुद्रा -- श्रीगुरुचरणों का स्पर्श है। जिन्हें खेचरी-मुद्रा सिद्ध नहीं है, वे साधनाकाल में जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखें, और आती-जाती श्वास के प्रति सजग रहें। तालव्य-क्रिया के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है। सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति और उसका आलोक ही "श्रीगुरु चरण सरोज रज" है, जिस में हमारा मन लोटपोट करता रहे, और भगवान का स्मरण, चिंतन और ध्यान करे। तभी चार फलों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
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संध्याकाल -- दो श्वासों के मध्य का संधिकाल "संध्या" कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है। हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए, क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं। हर श्वास -- एक जन्म है; और हर प्रश्वास -- एक मृत्यु।
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हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों में ही रहता है तब हमारे में धर्म की ग्लानि होती है। हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रारचक्र, व उससे भी ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है। आज्ञाचक्र और उस से ऊपर धर्मक्षेत्र है, उसके नीचे कुरुक्षेत्र।
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यह मनुष्य देह इस संसार सागर को पार करने की नौका है, गुरु कर्णधार हैं, व अनुकूल वायु -- परमात्मा का अनुग्रह है। हम सदा परमात्मा की चेतना में रहें। ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता से भी परे -- परमशिव हैं। वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है। मेरुदंड में विचरण कर रहे प्राणों का घनीभूत रूप "कुण्डलिनी महाशक्ति" है, जिसका परमशिव से मिलन ही योग है। हमारा मन सदा "श्रीगुरु-चरण-सरोजरज" में लोटपोट करता रहे। फिर जो करना है, वह स्वयं परमात्मा ही करेंगे।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२२

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