यह लेख मेरे प्राणों की वेदना और आनंद की एक अभिव्यक्ति मात्र है, और कुछ भी नहीं --
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जीवन में हमारा लक्ष्य उच्चतम हो, हमारी दृष्टि सदा अपने लक्ष्य की ओर ही रहे। सफलता-असफलता का कोई महत्व नहीं है। जब पूर्ण सत्यनिष्ठा से हमने परमात्मा की प्राप्ति को ही अपना लक्ष्य बना लिया है, तब हमारी अंतर्दृष्टि सदा सिर्फ परमात्मा की ओर ही रहे। इधर-उधर कहीं भी देखने की आवश्यकता नहीं है। उनका सतत स्मरण पूर्ण प्रेम से निरंतर हर समय होता ही रहे।
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यह स्वयं परमात्मा, और उनकी पराशक्ति भगवती की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वे हमें सफलता प्रदान कर अपने साथ एक करें। परमात्मा के साथ एक होना ही परमात्मा की प्राप्ति है। हम उन्हें परमशिव कहें या विष्णु कहें, या उनके किसी अवतार के रूप में याद करें, बात एक ही है। ईश्वर एक सर्वव्यापी सत्ता है जिनकी अनुभूति हमें गहरे ध्यान में होती है।
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सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे ज्योतिषांज्योति परमब्रह्म परमशिव का ध्यान ही मेरी उपासना है। उस चेतना में मैं, मेरे गुरु, और स्वयं परमशिव -- एक हैं। इनमें कोई भेद नहीं है। मेरी हर साँस, और उसकी प्रतिक्रिया में व्यक्त भगवती कुंडलिनी महाशक्ति -- मेरे और परमात्मा के मध्य में एक कड़ी (Link) हैं। उन्हीं ने मुझे परमात्मा से जोड़ रखा है। वे घनीभूत प्राण-तत्व के रूप में व्यक्त हो रही हैं। मुझे निमित्त बना कर इस देह के माध्यम से वे स्वयं ही उपासना करते हुए भौतिक देह से सांसें ले रही हैं। जिस दिन वे मेरे लिए परमशिव के साथ एक हो जायेंगी, उस दिन मैं भी भगवान की पूर्णता को उपलब्ध हो जाऊंगा। उन्होने ही मुझे परमशिव से पृथक किया था, और वे ही संयुक्त करेंगी। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। जो परमशिव हैं, वे ही यह "मैं" है।
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प्राण-तत्व के रूप में भगवती के संचलन की प्रतिक्रया से चल रही इन साँसों ने ही मुझे परमात्मा से जोड़ रखा है| मुझे निमित्त बनाकर भगवान स्वयं, इस देह के माध्यम से साँस ले रहे हैं| हर साँस के साथ साथ जगन्माता मुझे निरंतर परमात्मा की ओर धकेल रही हैं। उनके इस प्रवाह के प्रति सचेतनता ही मेरे लिए वेदपाठ है। मुझे और कुछ नहीं आता-जाता।
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जिस परम ज्योति के दर्शन मुझे होते हैं, उसी को मैं "कूटस्थ सूर्यमंडल" कहता हूँ। उस सूर्यमण्डल का भेदन कर भगवती स्वयं ही नुझे परमशिव से मिला देंगी। मैं तो निश्चिंत हूँ। जहाँ भी मैं हूँ वहीं स्वयं परमात्मा हैं। जहाँ परमात्मा हैं, वहीं मैं हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२२
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