गीता के इन श्लोकों का थोड़ा चिंतन कीजिए तब समझ में आयेगा कि "अनन्य" का अर्थ क्या है। गहराई में जाने के लिए वेदान्त के दृष्टिकोण से विचार कीजिए ---
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये| कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है|
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम। जब भी समय मिले, कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें। आध्यात्म की परावस्था में रहें। सारा जगत ही ब्रह्ममय है। किसी भी परिस्थिति में परमात्मा की उपासना न छोड़ें। पता नहीं कितने जन्मों में किए हुए पुण्य कर्मों के फलस्वरूप हमें भक्ति का यह अवसर मिला है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी उपेक्षा से परमात्मा को पाने कीअभीप्सा ही समाप्त हो जाए। भगवान की भक्ति अनन्य भाव से करें। केवल भगवान ही हैं। कोई उनसे अन्य नहीं है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
६ मई २०२२
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