मेरे से मिलने-जुलने वाले अधिकांश मित्र शिकायत (परिवाद) करते हैं कि मेरी भाषा बहुत अधिक संस्कृत-निष्ठ और कठिन है। जहाँ तक मेरा प्रयास है मैं तो सरलतम भाषा में लिखता हूँ। मेरी समझ से परे है कि इससे अधिक सरल भाषा और क्या हो सकती है? मैं तो कभी साहित्य का विद्यार्थी भी नहीं था, और जीवन का सर्वश्रेष्ठ भाग भारत से बाहर बिताया है, जहाँ हिन्दी का प्रयोग नगण्य ही था।
भारत के ही संत-महात्माओं की आज्ञा और प्रेरणा से हिन्दी में लिखना आरंभ किया और अब किसी भी अन्य भाषा में नहीं लिख सकता। भाषा तो मेरी यही रहेगी। भाषा की शुद्धता के साथ मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। सभी को नमन !!
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