पुरुषार्थी कौन है? ---
.
अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष -- ये सब साधन मात्र हैं, जो जीवन में स्वतः ही घटित होते हैं। मोक्ष भी कोई लक्ष्य नहीं हो सकता। यह एक अवस्था है, जिससे भी परे जाना पड़ता है। धर्म भी एक साधन है। अंततः धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना पड़ता है। ब्रह्मज्ञान यानि आत्मज्ञान को प्राप्त करने की साधना/तपस्या ही मेरी दृष्टि में पुरुषार्थ है। तपस्या करने से अन्तःकरण का राग-द्वेष क्षीण होता है, पापों का नाश होता है, चित्त की वृत्तियाँ शांत होती हैं, भोग-वासनाओं का नाश होता है, और जन्म-मरणादि के बन्धनो से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करते हैं। वह तपस्या ही पुरुषार्थ है।
.
पुरुष शब्द का अर्थ है -- जो हमारे पुर यानि हम सब के अन्तर में स्थित (या शयन कर रहे) -- आत्मरूप परमात्मा हैं। परमात्मा हम सब के भीतर हैं, अतः वे ही एकमात्र पुरुष है, और उनको पूर्ण निष्ठा से पाने का प्रयास ही पुरुषार्थ है। आत्मा को पुरुषार्थ की ओर प्रवृत्त न करना आत्मा का हनन यानि आत्म-ह्त्या है। दूसरे शब्दों में हमारा आत्मतत्व ही पुरुष है, और उसमें स्थिति का प्रयास ही पुरुषार्थ है। उन परम-पुरुष के साथ हम एक हों। वे ही एकमात्र सत्य हैं। उन्हें पाना ही पुरुषार्थ है। हम पुरुषार्थी बनें।
.
बृहदारण्यक उपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं --
"आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।"
अर्थात् - यह आत्मा ही देखने (जानने), सुनने, मनन करने, तथा निदिध्यासन करने योग्य है।
.
आप सब महान आत्माओं को नमन !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ जुलाई २०२२
No comments:
Post a Comment