कुछ दिनों पूर्व की ही बात है। ध्यान में मुझे एक अति गहन अनुभूति हुई और आदेश/उपदेश प्राप्त हुये जिन्हें मैं लौकिक शब्दों में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ ---
.
(१) परमात्मा की प्राप्ति, यानि आत्म-साक्षात्कार --- हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम, और एकमात्र उद्देश्य है। हमारा लक्ष्य परमात्मा है। उस से कम कुछ भी नहीं। इस मार्ग में कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत यदि बाधक हो तो उसका उसी क्षण त्याग कर दो। कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत -- परमात्मा से बड़ा नहीं है।
(२) धर्म और अधर्म से भी ऊपर हमें उठना होगा। अंततः ये भी बंधन हैं। परमात्मा सब तरह के धर्म और अधर्म से परे है।
.
भगवान ने गीता में जिस ब्राह्मी-स्थिति की बात की है, उस ब्राह्मी स्थिति में हम सब प्रकार के बंधनों से ऊपर होते हैं। कूटस्थ-चैतन्य में रहने का अभ्यास करते करते हमें ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त हो जाती है। भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
(O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attains, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal.)
.
मार्ग है -- गुरु की आज्ञा व उपदेशानुसार कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान करो। हमारे विचार व आचरण निरंतर परमात्मा की चेतना में हों। हम निरंतर सदा हर समय परमात्मा की चेतना में स्थित रहने का प्रयास यानि साधना करते रहें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०२२
No comments:
Post a Comment