पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म भी बंधन हैं, जिनसे परे जाकर हमें मुक्त होना होगा ---
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ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, जिनसे मैं जीवित हूँ। यह आवश्यक नहीं है कि कोई इन से सहमत हो। मेरे ये अनुभूत सत्य हैं।
सृष्टिकर्ता परमात्मा के साथ हम एक हैं। जो भी हमारी चेतना को परमात्मा से पृथक करके हमें सीमितता में बांधता है, वह पाप है। जो हमारी चेतना को अनंत, व उससे भी परे विस्तृत करता है, वह पुण्य है। हमें पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म से भी ऊपर उठना होगा। पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म भी बंधन हैं।
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गीता में भगवान हमें नित्यसत्त्वस्थ, निर्द्वन्द्व, निर्योगक्षेम, आत्मवान्, और निस्त्रैगुण्य होने का उपदेश करते हैं। गीता के अनुसार समत्व ही ज्ञान है, जो समत्व में स्थित है, वही ज्ञानी है। समत्व में स्थिति के लिए प्रज्ञा का स्थिर होना आवश्यक है। जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, वह स्थितप्रज्ञ है। जो स्थितप्रज्ञ है वह ही परमहंस है।
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हम निरंतर ब्राह्मी स्थिति यानि परमात्मा की चेतना में रहें। कूटस्थ-चैतन्य का अभ्यास करते करते गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो जाती है। अज्ञान की तीनों ग्रंथियों (मूलाधारचक्र में रुद्र ग्रंथि, अनाहतचक्र में विष्णु ग्रंथि, और आज्ञाचक्र में ब्रह्मग्रंथि) का भेदन आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण की त्रिभंग-मुद्रा इसी का प्रतीक है।
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इससे आगे की बातें फिर कभी जब ईश्वर की इच्छा होगी। मेरे से मिलने की इच्छा है तो कूटस्थ में भगवान का ध्यान करें। मेरे पास किसी का मनोरंजन या आतिथ्य करने के लिए न तो संसाधन हैं, और न ही समय।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०२३
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पुनश्च: --- सब नियम और संकल्प तिरोहित हो गए हैं। सर्वत्र सब कुछ, और सर्वदा भगवान स्वयं बिराजमान हैं। अन्य कुछ है ही नहीं। धर्म और अधर्म -- इन सब में अब कोई रुचि नहीं रही है। भगवान धर्म और अधर्म व सब नियमों से परे हैं। भगवान हैं, यहीं पर और इसी समय हैं। चेतना में वे ही वे हैं। उनका साथ कभी नहीं छूट सकता।
आप सब से मिले प्रेम के लिए आभारी हूँ। नमस्ते॥
कृपा शंकर
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