महर्षि अरविंद (लेखक : आचार्य बाल कृष्ण. 5 दिसंबर २०१३)
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महर्षि अरविंद देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद के देवदूत, मानवता के प्रेमी, ज्ञानी, क्रन्तिकारी और महायोगी के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। वे संस्कृत, बंगला आदि स्वदेशी तथा ग्रीक, इतालवी, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने पूर्व और पश्चिम की आध्यात्मिक विचारधाराओ का यौगिक स्तर से समन्वय किया।
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महर्षि अरविंद देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद के देवदूत, मानवता के प्रेमी, ज्ञानी, क्रन्तिकारी और महायोगी के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। वे संस्कृत, बंगला आदि स्वदेशी तथा ग्रीक, इतालवी, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने पूर्व और पश्चिम की आध्यात्मिक विचारधाराओ का यौगिक स्तर से समन्वय किया।
अरविन्द घोष का जन्म १५ अगस्त ,१८७२ को कलकत्ता के बंगाली परिवार में हुआ
था। उनके पिता श्री कृष्णधन घोष कलकत्ता के प्रसिद्द वकील थे। अरविन्द की
माता स्वर्णलता देवी धार्मिक विचारो की महिला थी, किन्तु पति के निर्देश या
आदेश पर उन्हें भी अपने आप को पाश्चात्य जीवन - शैली में रंगना पड़ा था।
पिता के इस प्रभाव के कारण ही अरविन्द की शिक्षा -दीक्षा अंग्रेजी वातावरण
में हुई। उनके पिता ने उन्हें पांच वर्ष की अवस्था में दार्जिलिंग के
लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिल करवा दिया, जिसका प्रबंध यूरोपीय लोग करते
थे।
अरविन्द सात साल तक स्वेदश में रहे। उसके बाद उनके पिता ने उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध का प्रबंध इंग्लैंड में कर दिया और उन्हें उनके दोनों भाइयो श्री विनय भूषण घोष और श्री मनमोहन घोष के साथ इंग्लैंड भेज दिया। वहां मेंचेस्टर के एक अंग्रेज परिवार में उनका पालन पोषण हुआ। पिता ने अंग्रेज परिवार को अच्छी तरह सावधान कर दिया था की अरविन्द के जीवन पर किसी भी तरह से भारतीय वातावरण का प्रभाव न पड़े।
सन १८८४ में अरविन्द ने लन्दन के सैंट पाल स्कूल में प्रवेश लिया। वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे। अठारह साल की अवस्था में उनहोने उत्तम श्रेणी में छात्रवृत्ति प्राप्त करने पर कैम्ब्रिज युनिवेर्सिटी के किंग्स कॉलेज में प्रवेश लिया। वहीं उन्होंने लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच,इतालवी, जर्मन एवं स्पेनिश भाषाए सीखी। उन्होंने ग्रीक और लैटिन में कविताए भी रची। वह कॉलेज के विभिन कार्यक्रमों में सक्रियिता से भाग लेते थे और प्रतियोगिताओ में पुरस्कार भी जीतते थे। अरविन्द ने आई .सी.एस . के परीक्षा दी, उत्तीर्ण हुए ,पर घुड़सवारी में असफल हो गए।
फ़रवरी १८९३ में अरविन्द भारत लौटे। सन १८९३ से १९०६ तक लगभग तेरह वर्ष अरविन्द घोष बड़ोदा नरेश की सेवा में रहे। वे बड़ोदा कॉलेज में फ्रेंच एवं अंग्रेजी पढ़ाते थे। अरविन्द बड़ोदा नरेश के लिए समय-समय पर व्याख्यान भी लिखते थे। वहीं वह श्री ब्रह्मानंद और विष्णु भास्कर लेले नामक योगियों के संपर्क में आये,जिनसे उन्होंने योग विद्या सीखी और जिसका वह नियमित अभ्यास करते रहते थे।
जिन दिनों अरविन्द घोष बड़ोदा नरेश की सेवा में थे उन दिनों देश भर में स्वाधीनता-संग्राम की लहर जोर पकड़ती जा रही थी।अरविन्द भी उस लहर में सहज ही बहने लगे। बड़ोदा से अरविन्द समय -समय पर कलकत्ता भी जाते रहते थे। वहां वह गुप्त रूप से क्रांतिकारियों के सहयोगी बन गए।
अरविन्द नोकदार जूते पहनते थे। उनका पहनावा साधारण होता था। धारीदार खादी,गर्दन तक फैले बाल ,सावला रंग,एकहरा शरीर -यही उनका साधारण व्यक्तित्व था।वह अन्य रईशों की तरह कोमल गद्दों पर नहीं सोते थे, बल्कि नारियल के रेशो से बने गद्दों पर सोते थे। बिस्तर ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत सुख सुविधा के प्रति भी उदासीन रहते थे। उनके पास एक पुरानी बग्गी थी, जिसके लिए एक घोडा भी था -बेहद सुस्त। वह इस बग्गी पर सैर करने जाते थे।
सन १९०१ में भूपाल चन्द्र बोस की कन्या मृणालिनी के साथ उनका विवाह हुआ। मृणालिनी देवी कुछ समय तक बड़ोदा में रही ,किन्तु बाद में वे कलकत्ता लौट आयी।सन १९०५ में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन कर दिया ,जिसके परिणाम स्वरूप देश भर में बंग-भंग विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। उन्हीं दिनों कलकत्ता में सुबोध मल्लिक ने एक महाविद्यालय की स्थापना की ,जिसके लिए अरविन्द घोष भी आमंत्रित किया गए। अरविन्द ने ७५०रुपए का वेतन छोड़ कर उक्त महाविद्यालय के प्राचार्य का पद १५० रूपये में काम करना स्वीकार कर लिया। कुछ दिनों बाद वे भी न मिले। सन १९०७ में अरविन्द ने नेशनलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता की। यह कांग्रेस का ही क्रांतिकारी संघठन था। इसी वर्ष अरविन्द ने विपिन चन्द्र पाल के अंग्रेजी दैनिक \'वन्दे मातरम\' में काम करना शुरू कर दिया। अंग्रेज सरकार ने \'वन्दे मातरम \' के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। संपादक के रूप में श्री अरविन्द को अभियुक्त बनाया गया। सारे देश में हलचल मच गयी।
विपिन चन्द्र पाल ने इस अवसर पर अरविन्द का बहुत सहयोग -समर्थन किया। यहाँ तक की उन्होंने अख़बार के संपादक के रूप में में श्री अरविन्द को स्वीकार ही नहीं किया और साक्षी के रूप में सत्य पाठ करने से इंकार कर दिया। फलतः उन्हें छः माह के लिए जेल जाना पड़ा। किन्तु सरकार अरविन्द को दोषी सिद्ध नहीं कर पाई। अदालत का निर्णय सामने आते ही चारो ओर ख़ुशी के लहर फैल गयी। छोटे -बड़े अनेक पत्र -पत्रिकाओ में अभिनन्दन किया गया ,सम्पादकीय लिखे गए ,सभा गोष्ठिया आयोजित करके उन्हें सम्मानित किया गया।
अरविन्द की क्रन्तिकारी गतिविधियों से सरकार बहुत विचलित हो उठी। किन्तु वह उनका कुछ बिगाड़ नहीं पा रही थी ,क्योकि वह क्रन्तिकारी कार्यो में कभी आगे बढकर सामने नहीं आते। बल्कि प्रष्ठभूमि में रहते थे। फिर भी २ मई १९०८ को पुलिस ने आलीपुर बम्ब काण्ड के प्रेरक होने का अभियोग लगाकर उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाई।
कलकत्ता के मुररिपुकुर इलाके में एक बगीचे में एक छोटा सा मकान और पोखर था। पुलिस नें अरविन्द को पकड़ने के लिए वहां छपा मारा ; किन्तु वहां अरविन्द नहीं उनके भाई रहते थे। पुलिस ने वहां अरविन्द को न पाकर ग्रे स्टेट पर अरविन्द के आवास को घेर लिया। किन्तु तलाशी में पुलिस को वहां कुछ भी नहीं मिला। फिर भी पुलिस ने अलीपुर बम्ब कांड के प्रेरक होने का अभियोग लगाकर उन्हें एक वर्ष त़क विचारधीन कैदी के रूप में जेल में रखा।यह मामला अलीपुर के मजिस्ट्रेट से सेशन जज के पास गया।
इस षड़यंत्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था ,उसकी एक दिन जेल में ही ह्त्या कर दी गयी।अरविन्द के पक्ष में प्रसिद्द बैरिस्टर चितरंजन दास मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। उनहोने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द के सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बंधित अदालती फैसले ६मई १९०९ को जनता के सामने आया।३० मई १९०९ को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी। वहां अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ ,जो इतिहास में \'उत्तरपाडा अभिभाषण \' के नाम से प्रसिद्द हुआ।
जेल से छूटने पर अरविन्द ने अंग्रेजी में \'कर्मयोगिन \'और बंगला में \'धर्म \'नाम से दो पत्रिकाओ का संपादन शुरू किया। यह दोनों पत्रिकाए राजनीती से हटकर सामाजिक समस्याओ पर आधारित थी। हाँ ,\'धर्म \'में अध्यात्मिक एवं दार्शनिक चर्चा को भी महत्व दिया जाता था। फिर भी इनमे छिपे तौर पर क्रांति की झलक मिल जाती थी। शायद यही कारण है की प्रत्यक्षत अरविन्द का रुझान अध्यात्मिक सा होते हुए भी बंगाल के गवर्नर और भारत के गवर्नर-जनरल दोनों ही यह समझते थे की अरविन्द सम्पूर्ण भारत में सबसे ज्यादा खतरनाक आदमी है। तत्कालीन वायसरॉय के सचिव ने लिखा था -\"सारी क्रन्तिकारी हलचल का दिल और दिमाग यही व्यक्ति है,जो ऊपर से कोई गैर कानूनी कार्य नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता।
अंग्रेज सरकार उनके प्रति पूर्णत निश्चिंत नहीं हो सकी थी। यही लगता था की कहीं अरविन्द गुप्त रूप से क्रांति या विद्रोह की योजना न बना रहे हों। इसलिय वह किसी भी बहाने से उन्हें जेल में डालना चाहती थी। किसी तरह भगिनी निवेदिता को सरकार की यह शंका और योजना पता चल गयी थी। उन्होंने तुरंत अरविन्द को भूमिगत होने की सलाह दी। लेकिन अरविन्द की विडम्बना यह थी की वह किसी के कहने पर सहज अमल नही करते थे,बल्कि अन्तः प्रेरणा या भगवान् के आदेश पर निर्भर रहते थे। उनके अनुसार व्यक्ति की अन्तः प्रेरणा ही उसका पथ प्रदर्शक करते है। एक दिन जब उन्हें अन्तः प्रेरणा के रूप में भगवान् का आदेश मिला कि चन्दन नगर चले जाओ , तो वे १५ मिनट में दो सेवको के साथ में गंगा किनारे जा पहुचे और चंदर नगर जाने वाली नौका में जा बैठे। आश्चर्य की बात यह थी की उनके घर पर नज़र रखने वाली पुलिस को कुछ भी पता न चाल सका। चंदर नगर में अरविन्द श्री मोतीलाल के यह ठहरे ,जो एक देश भक्त और क्रन्तिकारी थे।
कुछ दिन के बाद अरविन्द को पोंडिचेरी जाने के लिए अन्तः प्रेरणा मिली और वे तुरंत चंदर नगर से कलकत्ता के लिया चल दिया। कलकत्ता में वे चादं नाम के टिकट खरीद कर पोंडिचेरी जानेवाले जहाज में सवार हों गए। ४ अप्रैल १९१० को दोपहर के समय श्री अरविन्द पोंडिचेरी पहुचे। वहां वह \'भारत\' पत्रिका के प्रकाशक एवं प्रभावशाली नेता श्री निवासचारी के सहयोग से कालवे शंकर शेट्टी के घर ठहरे। कुछ दिन बाद अरविन्द ने एक घर वही किराये पर ले लिया।
उधर ७ अप्रैल १९१० सरकार ने जब उन्हें गिरफ्तार करने के लिए पुलिस भेजी तो अरविन्द का खाली घर देख कर हाथ मालती रह गयी। उनके छिपने के सारे ठिकानो पर छापे मारे गए; किन्तु फिर भी पुलिस उनका पता न लगा सकी। बाद में ब्रिटिश पार्लियामेंट में भी कई दिन तक वाद -विवाद हुआ की पुलिस की आँखों में धूल झोंककर वे कहाँ चले गए। जब ख़ुफ़िया विभाग से अंग्रेज सरकार को अरविन्द के पोंडिचेरी पहुचने के खबर मिली तो सरकार उन्हें ब्रिटिश भारत में लाने की कोशिश करने लगी। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने फ़्रांसिसी सरकार से मदद मांगी ;उस वक्तपोंडिचेरी फ़्रांसिसी सरकार के आधीन था।
कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओ ने अरविन्द से राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर सभापति बनने का अनुरोध किया ; किंतु अरविन्द राज़ी नहीं हुआ। पोंडिचेरी में अरविन्द ने \'आर्य\' नामक अंग्रेजी मासिक का संपादन किया। इसके अतरिक्त वे योग साधना में भी जुट गए। २९मर्च ,१९१४ को \"श्री माँ\" से उनके भेट हुई। वे पेरिस से पोंडिचेरी आये थी। श्री माँ के संपर्क से अरविन्द का प्रभाव बढ गया। अनेक लोग उनके विचारो से प्रभावित हुए। देश -विदेश से लोग उनका सान्निध्य पाने के लिया आने लगे। धीरे- धीरे श्री अरविन्द का आवास आश्रम बन गया। जिसके संगठन का भार आया श्री माँ पर। उन्होंने अपनी अदभुद संघठन शक्ति से अरविन्द आश्रम की प्रतिष्ठा की।
अरविन्द प्राय तपस्या में लीन रहते। उन्होंने जन -सामान्य से भी मिलना जुलना बंद कर दिया था। विशेष परिस्तिथियों में ही वह किसी से मिलते थे ; किन्तु जिज्ञासुओ और साधुओ के पत्रों के उत्तर अवश्य देते। श्री अरविन्द आश्रम में आश्रमवासी सारा काम स्वयं करते थे ,क्योकि अरविन्द की धारणा थी - शारीरिक कार्य शारीर द्वारा की गए प्रार्थना है। खेती से लेकर अनेक कुटीर शिल्प तक आश्रम का कार्य फैला हुआ था। श्री अरविन्द के आश्रम के साधक कोई विशेष तरह की पोशाक नहीं पहनते थे। वे किसी विशेष बंधे-बंधाये नियम या पूजा -अर्चना में विश्वास नहीं करते। आश्रम एक विशेष विभाग है -अरविन्द अन्तेर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र ,जिसका उद्देश्य है पूर्णांग शिक्षा -अर्थात शिक्षार्थी की देह ,प्राण ,मन ,आत्मा का यथार्त विकास।अरविन्द की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य था अपने आप को पहचानना।
वर्तमान में अरविन्द के आश्रम में विभिन्न देशो और प्रदेशो के श्रद्धालु रहते है। द्वितीय महा युद्ध के दौरान अरविन्द के सार्वजिनक रूप से मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया और \'\' क्रिस्प योजना\'\' स्वीकार करने की अपील की। अरविन्द का विचार था की समस्त विश्व और विश्वातीत जगत एक ही चेतना भिन्न-भिन्न रूप है। उन्होंने परम्परागत प्राचीन योग साधना सभी प्रणालियों का अनुभव प्राप्त किया था और उनके सार को अपने \'पूर्णयोग \'के रूप में अपना लिया। समाज व राजनीती के क्षेत्र में श्री अरविन्द व्यक्ति की स्वाधीनता के पक्ष में थे। उनकी द्रष्टि में हर इकाई पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हुए भी समष्टि का अंग है और इन दोनों में कोई संघर्ष नहीं होता। वह \'विश्वराज्य \' के पक्षधर थे, जिसमे हर राज्य और हर समूह स्वतंत्र रूप से भाग ले सके।
आश्रम में श्री अरविन्द अपने चिंतन और मनन को गंभीरतापूर्वक लिपिबद्ध किया। उनके कृतित्व को चार भागो में बांटा जा सकता है-१.योग एवं आध्यात्म; 2. समाज ,संस्कृति एवं राजनीती ; ३. कविता ,नाटक आदि ; ४.चिट्ठी -पत्री। श्री अरविन्द की रचनाओ का संग्रह \'अरविन्द रचनावली \'के नाम से सन १९७२ में उनके जन्मशती पर तीस खंडो में प्रकाशित हुआ था। बाद में शोधकरतो ने कुछ अन्य रचनाए भी खोज निकाली और उनके १२५ वी जयंती पर सन१९९७ में उनके रचनावली पैतीस खंडो में प्रकाशित हुयी।
5 दिसंबर, 1950 को श्री अरविन्द आपनी देह का त्याग कर अनंत में विलीन हो गए।
अरविन्द सात साल तक स्वेदश में रहे। उसके बाद उनके पिता ने उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध का प्रबंध इंग्लैंड में कर दिया और उन्हें उनके दोनों भाइयो श्री विनय भूषण घोष और श्री मनमोहन घोष के साथ इंग्लैंड भेज दिया। वहां मेंचेस्टर के एक अंग्रेज परिवार में उनका पालन पोषण हुआ। पिता ने अंग्रेज परिवार को अच्छी तरह सावधान कर दिया था की अरविन्द के जीवन पर किसी भी तरह से भारतीय वातावरण का प्रभाव न पड़े।
सन १८८४ में अरविन्द ने लन्दन के सैंट पाल स्कूल में प्रवेश लिया। वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे। अठारह साल की अवस्था में उनहोने उत्तम श्रेणी में छात्रवृत्ति प्राप्त करने पर कैम्ब्रिज युनिवेर्सिटी के किंग्स कॉलेज में प्रवेश लिया। वहीं उन्होंने लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच,इतालवी, जर्मन एवं स्पेनिश भाषाए सीखी। उन्होंने ग्रीक और लैटिन में कविताए भी रची। वह कॉलेज के विभिन कार्यक्रमों में सक्रियिता से भाग लेते थे और प्रतियोगिताओ में पुरस्कार भी जीतते थे। अरविन्द ने आई .सी.एस . के परीक्षा दी, उत्तीर्ण हुए ,पर घुड़सवारी में असफल हो गए।
फ़रवरी १८९३ में अरविन्द भारत लौटे। सन १८९३ से १९०६ तक लगभग तेरह वर्ष अरविन्द घोष बड़ोदा नरेश की सेवा में रहे। वे बड़ोदा कॉलेज में फ्रेंच एवं अंग्रेजी पढ़ाते थे। अरविन्द बड़ोदा नरेश के लिए समय-समय पर व्याख्यान भी लिखते थे। वहीं वह श्री ब्रह्मानंद और विष्णु भास्कर लेले नामक योगियों के संपर्क में आये,जिनसे उन्होंने योग विद्या सीखी और जिसका वह नियमित अभ्यास करते रहते थे।
जिन दिनों अरविन्द घोष बड़ोदा नरेश की सेवा में थे उन दिनों देश भर में स्वाधीनता-संग्राम की लहर जोर पकड़ती जा रही थी।अरविन्द भी उस लहर में सहज ही बहने लगे। बड़ोदा से अरविन्द समय -समय पर कलकत्ता भी जाते रहते थे। वहां वह गुप्त रूप से क्रांतिकारियों के सहयोगी बन गए।
अरविन्द नोकदार जूते पहनते थे। उनका पहनावा साधारण होता था। धारीदार खादी,गर्दन तक फैले बाल ,सावला रंग,एकहरा शरीर -यही उनका साधारण व्यक्तित्व था।वह अन्य रईशों की तरह कोमल गद्दों पर नहीं सोते थे, बल्कि नारियल के रेशो से बने गद्दों पर सोते थे। बिस्तर ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत सुख सुविधा के प्रति भी उदासीन रहते थे। उनके पास एक पुरानी बग्गी थी, जिसके लिए एक घोडा भी था -बेहद सुस्त। वह इस बग्गी पर सैर करने जाते थे।
सन १९०१ में भूपाल चन्द्र बोस की कन्या मृणालिनी के साथ उनका विवाह हुआ। मृणालिनी देवी कुछ समय तक बड़ोदा में रही ,किन्तु बाद में वे कलकत्ता लौट आयी।सन १९०५ में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन कर दिया ,जिसके परिणाम स्वरूप देश भर में बंग-भंग विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। उन्हीं दिनों कलकत्ता में सुबोध मल्लिक ने एक महाविद्यालय की स्थापना की ,जिसके लिए अरविन्द घोष भी आमंत्रित किया गए। अरविन्द ने ७५०रुपए का वेतन छोड़ कर उक्त महाविद्यालय के प्राचार्य का पद १५० रूपये में काम करना स्वीकार कर लिया। कुछ दिनों बाद वे भी न मिले। सन १९०७ में अरविन्द ने नेशनलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन की अध्यक्षता की। यह कांग्रेस का ही क्रांतिकारी संघठन था। इसी वर्ष अरविन्द ने विपिन चन्द्र पाल के अंग्रेजी दैनिक \'वन्दे मातरम\' में काम करना शुरू कर दिया। अंग्रेज सरकार ने \'वन्दे मातरम \' के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। संपादक के रूप में श्री अरविन्द को अभियुक्त बनाया गया। सारे देश में हलचल मच गयी।
विपिन चन्द्र पाल ने इस अवसर पर अरविन्द का बहुत सहयोग -समर्थन किया। यहाँ तक की उन्होंने अख़बार के संपादक के रूप में में श्री अरविन्द को स्वीकार ही नहीं किया और साक्षी के रूप में सत्य पाठ करने से इंकार कर दिया। फलतः उन्हें छः माह के लिए जेल जाना पड़ा। किन्तु सरकार अरविन्द को दोषी सिद्ध नहीं कर पाई। अदालत का निर्णय सामने आते ही चारो ओर ख़ुशी के लहर फैल गयी। छोटे -बड़े अनेक पत्र -पत्रिकाओ में अभिनन्दन किया गया ,सम्पादकीय लिखे गए ,सभा गोष्ठिया आयोजित करके उन्हें सम्मानित किया गया।
अरविन्द की क्रन्तिकारी गतिविधियों से सरकार बहुत विचलित हो उठी। किन्तु वह उनका कुछ बिगाड़ नहीं पा रही थी ,क्योकि वह क्रन्तिकारी कार्यो में कभी आगे बढकर सामने नहीं आते। बल्कि प्रष्ठभूमि में रहते थे। फिर भी २ मई १९०८ को पुलिस ने आलीपुर बम्ब काण्ड के प्रेरक होने का अभियोग लगाकर उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाई।
कलकत्ता के मुररिपुकुर इलाके में एक बगीचे में एक छोटा सा मकान और पोखर था। पुलिस नें अरविन्द को पकड़ने के लिए वहां छपा मारा ; किन्तु वहां अरविन्द नहीं उनके भाई रहते थे। पुलिस ने वहां अरविन्द को न पाकर ग्रे स्टेट पर अरविन्द के आवास को घेर लिया। किन्तु तलाशी में पुलिस को वहां कुछ भी नहीं मिला। फिर भी पुलिस ने अलीपुर बम्ब कांड के प्रेरक होने का अभियोग लगाकर उन्हें एक वर्ष त़क विचारधीन कैदी के रूप में जेल में रखा।यह मामला अलीपुर के मजिस्ट्रेट से सेशन जज के पास गया।
इस षड़यंत्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था ,उसकी एक दिन जेल में ही ह्त्या कर दी गयी।अरविन्द के पक्ष में प्रसिद्द बैरिस्टर चितरंजन दास मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। उनहोने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द के सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बंधित अदालती फैसले ६मई १९०९ को जनता के सामने आया।३० मई १९०९ को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी। वहां अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ ,जो इतिहास में \'उत्तरपाडा अभिभाषण \' के नाम से प्रसिद्द हुआ।
जेल से छूटने पर अरविन्द ने अंग्रेजी में \'कर्मयोगिन \'और बंगला में \'धर्म \'नाम से दो पत्रिकाओ का संपादन शुरू किया। यह दोनों पत्रिकाए राजनीती से हटकर सामाजिक समस्याओ पर आधारित थी। हाँ ,\'धर्म \'में अध्यात्मिक एवं दार्शनिक चर्चा को भी महत्व दिया जाता था। फिर भी इनमे छिपे तौर पर क्रांति की झलक मिल जाती थी। शायद यही कारण है की प्रत्यक्षत अरविन्द का रुझान अध्यात्मिक सा होते हुए भी बंगाल के गवर्नर और भारत के गवर्नर-जनरल दोनों ही यह समझते थे की अरविन्द सम्पूर्ण भारत में सबसे ज्यादा खतरनाक आदमी है। तत्कालीन वायसरॉय के सचिव ने लिखा था -\"सारी क्रन्तिकारी हलचल का दिल और दिमाग यही व्यक्ति है,जो ऊपर से कोई गैर कानूनी कार्य नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता।
अंग्रेज सरकार उनके प्रति पूर्णत निश्चिंत नहीं हो सकी थी। यही लगता था की कहीं अरविन्द गुप्त रूप से क्रांति या विद्रोह की योजना न बना रहे हों। इसलिय वह किसी भी बहाने से उन्हें जेल में डालना चाहती थी। किसी तरह भगिनी निवेदिता को सरकार की यह शंका और योजना पता चल गयी थी। उन्होंने तुरंत अरविन्द को भूमिगत होने की सलाह दी। लेकिन अरविन्द की विडम्बना यह थी की वह किसी के कहने पर सहज अमल नही करते थे,बल्कि अन्तः प्रेरणा या भगवान् के आदेश पर निर्भर रहते थे। उनके अनुसार व्यक्ति की अन्तः प्रेरणा ही उसका पथ प्रदर्शक करते है। एक दिन जब उन्हें अन्तः प्रेरणा के रूप में भगवान् का आदेश मिला कि चन्दन नगर चले जाओ , तो वे १५ मिनट में दो सेवको के साथ में गंगा किनारे जा पहुचे और चंदर नगर जाने वाली नौका में जा बैठे। आश्चर्य की बात यह थी की उनके घर पर नज़र रखने वाली पुलिस को कुछ भी पता न चाल सका। चंदर नगर में अरविन्द श्री मोतीलाल के यह ठहरे ,जो एक देश भक्त और क्रन्तिकारी थे।
कुछ दिन के बाद अरविन्द को पोंडिचेरी जाने के लिए अन्तः प्रेरणा मिली और वे तुरंत चंदर नगर से कलकत्ता के लिया चल दिया। कलकत्ता में वे चादं नाम के टिकट खरीद कर पोंडिचेरी जानेवाले जहाज में सवार हों गए। ४ अप्रैल १९१० को दोपहर के समय श्री अरविन्द पोंडिचेरी पहुचे। वहां वह \'भारत\' पत्रिका के प्रकाशक एवं प्रभावशाली नेता श्री निवासचारी के सहयोग से कालवे शंकर शेट्टी के घर ठहरे। कुछ दिन बाद अरविन्द ने एक घर वही किराये पर ले लिया।
उधर ७ अप्रैल १९१० सरकार ने जब उन्हें गिरफ्तार करने के लिए पुलिस भेजी तो अरविन्द का खाली घर देख कर हाथ मालती रह गयी। उनके छिपने के सारे ठिकानो पर छापे मारे गए; किन्तु फिर भी पुलिस उनका पता न लगा सकी। बाद में ब्रिटिश पार्लियामेंट में भी कई दिन तक वाद -विवाद हुआ की पुलिस की आँखों में धूल झोंककर वे कहाँ चले गए। जब ख़ुफ़िया विभाग से अंग्रेज सरकार को अरविन्द के पोंडिचेरी पहुचने के खबर मिली तो सरकार उन्हें ब्रिटिश भारत में लाने की कोशिश करने लगी। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने फ़्रांसिसी सरकार से मदद मांगी ;उस वक्तपोंडिचेरी फ़्रांसिसी सरकार के आधीन था।
कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओ ने अरविन्द से राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर सभापति बनने का अनुरोध किया ; किंतु अरविन्द राज़ी नहीं हुआ। पोंडिचेरी में अरविन्द ने \'आर्य\' नामक अंग्रेजी मासिक का संपादन किया। इसके अतरिक्त वे योग साधना में भी जुट गए। २९मर्च ,१९१४ को \"श्री माँ\" से उनके भेट हुई। वे पेरिस से पोंडिचेरी आये थी। श्री माँ के संपर्क से अरविन्द का प्रभाव बढ गया। अनेक लोग उनके विचारो से प्रभावित हुए। देश -विदेश से लोग उनका सान्निध्य पाने के लिया आने लगे। धीरे- धीरे श्री अरविन्द का आवास आश्रम बन गया। जिसके संगठन का भार आया श्री माँ पर। उन्होंने अपनी अदभुद संघठन शक्ति से अरविन्द आश्रम की प्रतिष्ठा की।
अरविन्द प्राय तपस्या में लीन रहते। उन्होंने जन -सामान्य से भी मिलना जुलना बंद कर दिया था। विशेष परिस्तिथियों में ही वह किसी से मिलते थे ; किन्तु जिज्ञासुओ और साधुओ के पत्रों के उत्तर अवश्य देते। श्री अरविन्द आश्रम में आश्रमवासी सारा काम स्वयं करते थे ,क्योकि अरविन्द की धारणा थी - शारीरिक कार्य शारीर द्वारा की गए प्रार्थना है। खेती से लेकर अनेक कुटीर शिल्प तक आश्रम का कार्य फैला हुआ था। श्री अरविन्द के आश्रम के साधक कोई विशेष तरह की पोशाक नहीं पहनते थे। वे किसी विशेष बंधे-बंधाये नियम या पूजा -अर्चना में विश्वास नहीं करते। आश्रम एक विशेष विभाग है -अरविन्द अन्तेर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र ,जिसका उद्देश्य है पूर्णांग शिक्षा -अर्थात शिक्षार्थी की देह ,प्राण ,मन ,आत्मा का यथार्त विकास।अरविन्द की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य था अपने आप को पहचानना।
वर्तमान में अरविन्द के आश्रम में विभिन्न देशो और प्रदेशो के श्रद्धालु रहते है। द्वितीय महा युद्ध के दौरान अरविन्द के सार्वजिनक रूप से मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया और \'\' क्रिस्प योजना\'\' स्वीकार करने की अपील की। अरविन्द का विचार था की समस्त विश्व और विश्वातीत जगत एक ही चेतना भिन्न-भिन्न रूप है। उन्होंने परम्परागत प्राचीन योग साधना सभी प्रणालियों का अनुभव प्राप्त किया था और उनके सार को अपने \'पूर्णयोग \'के रूप में अपना लिया। समाज व राजनीती के क्षेत्र में श्री अरविन्द व्यक्ति की स्वाधीनता के पक्ष में थे। उनकी द्रष्टि में हर इकाई पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हुए भी समष्टि का अंग है और इन दोनों में कोई संघर्ष नहीं होता। वह \'विश्वराज्य \' के पक्षधर थे, जिसमे हर राज्य और हर समूह स्वतंत्र रूप से भाग ले सके।
आश्रम में श्री अरविन्द अपने चिंतन और मनन को गंभीरतापूर्वक लिपिबद्ध किया। उनके कृतित्व को चार भागो में बांटा जा सकता है-१.योग एवं आध्यात्म; 2. समाज ,संस्कृति एवं राजनीती ; ३. कविता ,नाटक आदि ; ४.चिट्ठी -पत्री। श्री अरविन्द की रचनाओ का संग्रह \'अरविन्द रचनावली \'के नाम से सन १९७२ में उनके जन्मशती पर तीस खंडो में प्रकाशित हुआ था। बाद में शोधकरतो ने कुछ अन्य रचनाए भी खोज निकाली और उनके १२५ वी जयंती पर सन१९९७ में उनके रचनावली पैतीस खंडो में प्रकाशित हुयी।
5 दिसंबर, 1950 को श्री अरविन्द आपनी देह का त्याग कर अनंत में विलीन हो गए।
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